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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

जीवन ने मुझको खूब छला...



जीवन ने मुझको खूब छला !

जन्म और मृत्यु के बीच ,
खुद को डाला आँसू में सींच ,
शीतलता अनुभव करने के पहले मैं सौ - सौ बार जला !
जीवन ने मुझको खूब छला !

मैं गगन चाहता था छूना ,
और मिला मुझे पथ भी सूना ,
पार भाग्य ने हर उस राह को मोड़ा मैं जिसकी भी ओर चला !
जीवन ने मुझको खूब छला !

जीवन की परिभाषा क्या है ?
और मेरी अभिलाषा क्या है !
इस बर्बर उधेड़बुन की गोदी में हूँ मैं पला - बढ़ा !
जीवन ने मुझको खूब छला !


- संकर्षण गिरि

अभाव

हिंदी की कक्षा में अक्सर हमें ,

रिक्त स्थानों की पूर्ति करने को कहा जाता था...

और हम बड़े चाव से ,

सटीक शब्दों से ,

पूरा कर देते थे दिए गए अधूरे वाक्य को !


आज... जब तुम चले गए हो ,

और

तुम्हारा स्थान रिक्त हो गया है ...

कैसे पूर्ति करूँ उस अभाव की ?


कागज़ और जीवन में यही तो फर्क है ,

कागज़ को शब्द मिल जाते हैं ,

जीवन रह जाता है -

अकेला , असहाय , अपूर्ण , रिक्त ...!!!

- संकर्षण गिरि

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

जन्नत


मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ,
हर जगह , हर वक़्त , हर पल !

तुम मुझे भूलो, नज़र फेरो ,
या मेरा त्याग कर दो ,
खामोश रह कर मैं तुम्हारी हर एक इच्छा को ,
सम्मान दूंगा और तुमसे दूर हो लूँगा !

दूर हो लूँगा मगर इतना नहीं कि ,
जब जरूरत हो मेरी मैं आ नहीं पाऊं ;
दूर होने से मेरा आशय यही है ,
जब पुकारो तुम , मैं खुद को रोक न पाऊं !

ज़िन्दगी ने दगा दी गर ,
आसमा वाले से कहूँगा मेरी जन्नत ज़मी पर है ,
मुझे रोको नहीं ,
और जाने दो भटकती रूह बन कर ही सही !

आसमां वाले को पता तो चले आखिर ,
कि कोई छोड़ भी सकता बनाए उसके जन्नत को !

जन्नत तुम ही हो ,
और मेरी कल्पना की ,
साकार मूर्ति एक तुम ही तो हो केवल !

मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ,
हर जगह , हर वक़्त , हर पल !


- संकर्षण गिरि

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

आस अभी भी ...


आस अभी भी , प्यास अभी भी ,
जीने का अहसास अभी भी !

तुमको पा लेने की ख्वाहिश ,
खामोशी में आवाज़ अभी भी !

मैं हूँ कि जीता जाता हूँ ,
राह तके श्मशान अभी भी !

एक गुनाह किया था मैंने ,
आँखों से बरसात अभी भी !

'गिरि' को खुद कि खबर नहीं है ,
लेकिन सबकी याद अभी भी !


- संकर्षण गिरि

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल

जैसे आहू को सहरा में मिल गया कहीं कोई सराब,
कुछ इसी तरह मैं उनको पाने की उम्मीद लगा बैठा !
( आहू = हिरन ; सहरा = रेगिस्तान ; सराब = मृगतृष्णा )

आसमान पे नज़र गयी तो खौफ़नाक़ - सा मंज़र था,
दिल मे झांका तो वैसे ही सन्नाटे से घबरा बैठा !

जब चोट लगी जब दर्द हुआ, आँखों से नमी छीनी मैने,
जब आह निकलने वाली थी, मैं अपने होठ दबा बैठा !

आखिरी ख्वाहिश पूरी करने जब कोई नहीं दर पर आया,
'गिरि' ने खुद को अलविदा कहा, माथा अपना सहला बैठा !


- संकर्षण गिरि

बुधवार, 11 अगस्त 2010

क्या करूँ ...

वक़्त की उनको कमी है, क्या करूँ ,
मेरी आँखों में नमी है, क्या करूँ !

चाहता हूँ क़ैद से आज़ाद होना ,
ऊपर फ़लक नीचे ज़मीं है , क्या करूँ !

आह लब पर है मगर चुपचाप है ,
ख़ामोश दिल में खलबली है, क्या करूँ !

मंज़िल मिली सबको जो गिर कर उठ चले ,
राह मेरी दलदली है , क्या करूँ !

'गिरि' के घर खुदा ने दी है दस्तक ,
और वो घर पर नहीं है , क्या करूँ !


-- संकर्षण गिरि

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

भरोसा

आँखों में एक अजब उदासी ,
चलने की गति भी धीमी है ,
दिल में कुछ खलबली मची है ,
बार - बार बस वही बात
है घूम रही मन के आँगन में ,
कैसे मुझसे हुई भूल यह ,
कैसे मुझको मिलने वाली सजा
मिल गयी और किसी को !

उसने मुझको मान दिया था
पूरा था विश्वास उसे कि
मेरे होने भर से उसको आँच नहीं कोई आएगी !

आँच नहीं आयी लेकिन
मैं आत्म ग्लानी में जल कर जैसे
ख़ाक हुआ - सा जाता हूँ ।
कैसे खुद को समझाऊं कि
जो हुआ उसे बेहतर भूलो
औरों को भी ऊंचाई दो ,
सब के संग फलो फूलो !

मन को राहत मिली
शून्य को तकते तकते आँख लगी जब ।

आशा है आँखें खुलने तक ,
दिल को बात समझ आ जाए !

-- संकर्षण गिरि

शनिवार, 10 जुलाई 2010

ईश्वर के टुकड़े



वो जो नहीं दीखता , उसकी उपासना ,
और जो सामने है , उसकी अवहेलना करते हैं ,
परलोक सुधारने के लिए हम
न जाने क्या क्या भेस धरते हैं...!

कोई पत्थर की पूजा करता है ,
कोई बुतफ़रोश है ,
कोई अहिंसा का पुजारी है ,
कोई हिंसा के नाम पर ख़ामोश है !
अलग अलग धर्मों के अलग अलग पंगे हैं ,
ईश्वर के अल्लाह के नियम कितने बेढंगे हैं !
हम स्वर्ग या जन्नत की लालसा में मरते हैं ...

ऊपर वाला अब एक नहीं ,
इंसान अब नेक नहीं ,
हिन्दू और मुस्लिम के बीच दंगे आम हैं ,
तो क्या ईश्वर और अल्लाह का भी यही काम है ?
धर्म के ढकोसले आदमी को आदमी से दूर करते हैं !


-- संकर्षण गिरि

चलता ही रहा...

चलता ही रहा , न रुकने का अवकाश मिला !

आसान रहा तो कभी रास्ता सख्त रहा ,
खोया पाया सोया जागा और मस्त रहा ,
जहाँ पर ज़मीं ख़त्म हो गयी वहीं आकाश मिला !
चलता ही रहा , न रुकने का अवकाश मिला !

दरिया को लाँघा , आँधी को दी राह और ,
एक ठिकाना नहीं , रहा मैं कई ठौर ,
गिरि की तलाश थी , तूर मिला कैलाश मिला !
चलता ही रहा , न रुकने का अवकाश मिला !

-- संकर्षण गिरि

रविवार, 30 मई 2010

साबुन



हत्यारा
नहा रहा था
कि साबुन उसकी आँखों में घुस गया
हत्यारे ने साबुन फेंक दिया !

साबुन मरने वाली चीज़ नहीं थी
हत्यारा गया और दुकानदार को मार लाया !

हत्यारे ने खून के हाथ
साबुन से धोये
साबुन हत्यारे को भाने लगा !

साबुन अपनी जगह
बनाने लगा !


-- विष्णु नागर

बुधवार, 26 मई 2010

लुटेरा



छीन ली उसने
चेहरे की हमेशा खिली रहने वाली मुस्कान ,

बड़ी बेरहमी से खींच ली
गले में लटकी हुई साँसों की डोर ;

फफक कर रो पड़े सब
जिंदगी को मौत में तब्दील होता देख,

लूट कर सबकी खुशियाँ
गुम हो गया वो आसमान में
घने काले बादलों के बीच !

कोई बताये
कि ईश्वर लुटेरा है क्या ?


-- संकर्षण गिरि

मंगलवार, 18 मई 2010

जितनी सागर की लहरें हैं...


जितनी सागर की लहरें हैं , उतने ही हैं बूँद नयन में !


तब मैंने बाहें फैलायीं

लड़खड़ा रहा था जब प्रकाश ,

तब मैंने उसके दुःख बाँटे

सिमटा जाता था जब आकाश ;

मैंने पूरा सहयोग दिया

जिसकी जैसी भी व्यथा रही ,

तब आशा की किरणें लाया

जब दिखा मुझे कोई निराश !

आँसू पी कर मुस्कान बिखेरा है मैंने सबके जीवन में ।

जितनी सागर की लहरें हैं उतने ही हैं बूँद नयन में !


सब कुछ पाने के बाद भी

कुछ खोने का अहसास है !

उर क्यों अतृप्त है पता नहीं

मन क्यों इन दिनों उदास है ;

कब तलक , कहाँ तक सीधा रस्ता

मिलेगा जीवन में ,

भटक रही है सोच मेरी

मिल गया इसे वनवास है !

शिथिल - सी मेरी चाल देख ताकत - सी आई क्रूर पवन में !

जितनी सागर की लहरें हैं उतने ही हैं बूँद नयन में !



-- संकर्षण गिरि

वहम



अँधेरे को अंजुरी में भर कर
होठों से लगा लिया है मैंने !

पी रहा हूँ अँधेरा ,
ठीक उसी तरह
जैसे महर्षि अगस्त्य ने
समुद्र को पी कर बुझाई थी प्यास अपनी

छा गया उजाला मेरे आस पास
मालूम हो गया मुझे ठिकाना मेरा !

लेकिन साथ ही
कहीं गुम भी हो गया हूँ मैं ,
मेरे भीतर के अँधेरे ने
छीन ली है पहचान मेरी
मारा - मारा ढूँढता फिरता हूँ मैं स्वयं को ही !

और उम्मीद का दीया है
कि
जलने का नाम नहीं लेता ,
विश्वास की बाती कहीं खो गयी है शायद ...


मुझे लगता है -
आस पास का उजाला
वास्तव में अँधेरे का ही मायावी रूप है !

जब तक ह्रदय रौशन हो जाए ,
रौशनी महज एक वहम है ,
आँखों का फरेब है ,
दरख़्त पर लटकता हुआ आसेब है !


-- संकर्षण गिरि

रविवार, 16 मई 2010

परिपक्वता



लोग कहते हैं
मैं परिपक्व नहीं ;
बचपना है मेरे भीतर
यथार्थ में नहीं जीता मैं !

मुझे रोना नहीं आता ,
मगरमच्छ के आंसू भी बहाने नहीं आते मुझे ...
हाँ, परिपक्व नहीं हूँ मैं !

प्यार करता हूँ
मज़बूर हो कर नहीं -
प्यार पर भरोसा है
इसलिए करता हूँ ...
टूट कर , बिखर कर ,
दुत्कार दिए जाने के बाद भी !
बचपना गया नहीं अब तक !

मैंने ढोया है अपने कंधे पर ,
लोगों की परिपक्वताओं का बोझ !
कई बार टूटा हूँ मैं ...


दुनिया वालों ,
मुझे नादान ही रहने दो
टूटना मंज़ूर है मुझे ,
तोडना मेरे बस की बात नहीं !
परिपक्वता मेरे पास नहीं ... !


-- संकर्षण गिरि

जिसे इश्क़ का रोग लगा है !



जिसे इश्क़ का रोग लगा है !

उससे पूछो क्या इंतज़ार ,
क्या प्यास और क्या है ख़ुमार ?
वो बतलायेगा सही किसी की याद में जो हर रात जगा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !


कितनों की पूरी हुई चाह ,
कुछ लुटे यहाँ पर बीच राह ,
कितनों को बेरहम वक़्त ने ला क़रीब दे दिया दगा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !


प्रेयसी को पाने का जूनून ,
पहुँचाता है उसको सुकून ,
कहता महबूबा की याद में रोने का भी अलग मज़ा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !


-- संकर्षण गिरि


शनिवार, 15 मई 2010

कुछ लोग - एक ग़ज़ल



सूखे
हुए पत्ते की तरह झरते हैं कुछ लोग ,
खुद को भी बेचने से नहीं डरते हैं कुछ लोग !

तहजीब को मिट्टी का खिलौना समझते हैं ,
जब जी में आया तोड़ दिया करते हैं कुछ लोग !

ज़िन्दगी को उनसे बेहतर कौन समझेगा ,
लाश बन कर भी ज़मीं पर रहते हैं कुछ लोग !

नजदीकियाँ बढती हैं ख़यालात मिलने से ,
आँखों के रस्ते दिल में उतरते हैं कुछ लोग !

गाँव में पक्की सड़क होने के बावज़ूद ,
पगडंडियों , खेतों से ही गुजरते हैं कुछ लोग !

दर्द सीने से लगाए रखते हैं अहले वफ़ा ,
नमक से ही ज़ख्म अपने भरते हैं कुछ लोग !

'गिरि' को खुद नहीं पता की उसमें ख़ासियत क्या है ,
कहीं आहें भरते हैं तो कहीं मरते हैं कुछ लोग !


-- संकर्षण गिरि

गुरुवार, 13 मई 2010

जिजीविषा



नींद खुली तो खुद को पाया
दूर देह से,
दूर गेह से !

निस्पंद पड़ा था मैं ज़मीन पर,
मुख पर आभा थी
आँखों में कुछ सपने थे,
पर सपनोंके पूर्ण होने से पहले ही
साँसों के धागे टूट गए,
जीवन
को विश्राम मिला,
सब संगी साथी छूट गए !

मैं स्वयं ही जिनका संबल था,
जो फूला नहीं समाते थे
हर छोटी खुशियों में मेरी !

वो फफक फफक कर रोते हैं,
मैं उन्हें नहीं छू भी सकता ,
कैसे पोंछूं आँसू उनके ?

कैसे आभास दिलाऊँ की
मैं भले देह से अलग अभी ,
पर छोड़ उनको पाया हूँ ,
और छोड़ उनको पाऊंगा !

ये क्या रहस्य है ,
कुछ भी अपने नहीं है वश में ,
आया था किस ओर, कहाँ से ,
किसने भेजा , क्या करने को ?


खुद की तलाश करते करते
एक मोड़ मिली मैं जहाँ स्वयं को
लाश रूप में पाता हूँ ;
कुछ पल के लिए ठिठक कर सोचा ,
जाना भी वश की बात नहीं ,
जो होना है वो सब तय है ,
पर नचा रहा जो उंगली पर ,
उसका आखिर क्या परिचय है ?

मैं छोड़ उनको पाता हूँ ,
मैं छोड़ उनको पाऊंगा ,
जो मेरा माथा सहला कर ,
चुपचाप पड़े हैं बेसुध से !

ये किसने खींचा ? आह , अरे ,
दीखता भी नहीं, रुकता भी नहीं !
छोडो , रहने दो मुझे यहीं ,
करने तो दो एक काम मुझे अपने वश का ,
मंजिल मेरी है यही ठिकाना है मेरा !

पर कौन सुने ? ये सफ़र अभी भी बाक़ी है -
वो सफ़र की जिसका आदि - अंत अज्ञात !

मैं विवश व्योम की ओर चला
आँखों
में ये आशा ले कर -
शायद मिलने का अवसर है ,
बरसों से जिसकी थी तलाश !

लेकिन मैं वापस आऊँगा ...

जो इसी प्रतीक्षा में हैं की
मैं उठूँगा सो कर
और करूँगा बातें उनसे !

जिनको मैं छोड़ पाऊंगा
मैं उनके लिए ही आऊँगा
मैं उनके लिए ही आऊँगा ... !

-- संकर्षण गिरि