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शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल

जैसे आहू को सहरा में मिल गया कहीं कोई सराब,
कुछ इसी तरह मैं उनको पाने की उम्मीद लगा बैठा !
( आहू = हिरन ; सहरा = रेगिस्तान ; सराब = मृगतृष्णा )

आसमान पे नज़र गयी तो खौफ़नाक़ - सा मंज़र था,
दिल मे झांका तो वैसे ही सन्नाटे से घबरा बैठा !

जब चोट लगी जब दर्द हुआ, आँखों से नमी छीनी मैने,
जब आह निकलने वाली थी, मैं अपने होठ दबा बैठा !

आखिरी ख्वाहिश पूरी करने जब कोई नहीं दर पर आया,
'गिरि' ने खुद को अलविदा कहा, माथा अपना सहला बैठा !


- संकर्षण गिरि