मिट्टी को थोड़ा मृदु बना
मैंने बोया था बीज एक ,
खाद दिया, जल - धूप - छाँह
पर बाधा आती रही अनेक !
मिट्टी में तब अंकुर फूटे
जब स्वेद बहा , उद्योग हुआ
संपर्क नए नित बढ़े जभी
पौधे को हिल - मिल रोग हुआ !
ये रोग पड़ा भारी मुझ पर
माली था , त्याग न सकता था ।
आती विपदा पर पौधे को
कातर दृष्टि से तकता था ।
एक दुष्ट पवन के झोंके को
ऐसे अवसर की थी तलाश ,
जब माली जाए दूर कहीं
वो पौधे का कर सके नाश ।
वो समय भयानक आया भी
जब बिखर गयी डाली - डाली ,
जड़ भूमि से था अलग हुआ
जब दूर कहीं पर था माली !
मूढ़ स्वयं को कहूँ या कि
सब दोष नियति पर ही मढ़ दूँ
चिंतित हो कर सोचता रहूँ या
एक नयी दुनिया गढ़ लूँ !!
- संकर्षण गिरि