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रविवार, 9 मार्च 2014

फल

 
 
मिट्टी  को थोड़ा मृदु बना 
मैंने बोया था बीज एक ,
खाद दिया, जल - धूप - छाँह 
पर बाधा आती रही अनेक !
 
 
मिट्टी में तब अंकुर फूटे 
जब स्वेद बहा , उद्योग हुआ 
संपर्क नए नित बढ़े जभी 
पौधे को हिल - मिल रोग हुआ !
 
 
ये रोग पड़ा भारी मुझ पर 
माली था , त्याग न सकता था । 
आती विपदा पर पौधे को 
कातर दृष्टि से तकता था । 
 
 
एक दुष्ट पवन के झोंके को
ऐसे अवसर की थी तलाश ,
जब माली जाए दूर कहीं 
वो पौधे का कर सके नाश । 
 
 
वो समय भयानक आया भी 
जब बिखर गयी डाली - डाली , 
जड़ भूमि से था अलग हुआ 
जब दूर कहीं पर था माली !
 
 
मूढ़ स्वयं को कहूँ या कि 
सब दोष नियति पर ही मढ़ दूँ 
चिंतित हो कर सोचता रहूँ या 
एक नयी दुनिया गढ़ लूँ !!
 
 
- संकर्षण गिरि