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गुरुवार, 20 सितंबर 2012

टुकड़े



ज़िन्दगी को टटोल कर देखा

तो वक़्त के कुछ टुकड़े हाथ में आ गए

और टुकड़े भी ऐसे ,

कि जिनकी कोई पहचान नहीं !


ख़ुशी वाले वक़्त के टुकड़े हैं

या  ग़म के ,

आशा के हैं या निराशा को जन्म देने वाले ...

कुछ भी तो नहीं मालूम !

क्या करूँ मैं इनको ले कर ?

ज़िन्दगी की चादर अभी फटी भी तो नहीं ,

वरना कोई टुकड़ा उठा कर पैबंद ही लगा देता


ज़िन्दगी वक़्त को

पहले से कोई नाम दे कर नहीं रखती ;

ज़िन्दगी की जेब में वज़न तो है

पर है वो उसी के काम की ।

किसी जेबकतरे को रोना ही आएगा अपने नसीब पे ...

शायद इसीलिए ,

पहेली कहते हैं ज़िन्दगी को ।


बेहतर है

इन टुकड़ों को वहीं रख दूँ

जहाँ से ये हाथ लगे थे . . . !!!



- संकर्षण गिरि