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बुधवार, 2 नवंबर 2016

मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ !


मैं किसी पर क्यों भला ऊँगली उठाऊँ
मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ !

एक समय था मैं पिता का हाथ थामे
साथ चलता था कि खो न जाऊँ कहीं ,
और माँ की गोद में था खेलता रहता
निर्भीक हो कर ज्यों समूची दुनिया हो वहीं!

एक समय है राह पर काँटे ही काँटे हैं,
और अकेले ही मुझे उस पर जाना है,
भय, निराशा को, सभी अपमान को पी कर,
कनिष्ठा से वृहत गोवर्धन उठाना है !

हाँ, ये सच है बोझ कंधे पर रखे मैंने,
और मीलों तक चला, ठोकर भी खाया ,
और गिरा, गिर कर उठा, उठ कर चला
दर्द में भी मुस्कुराया, गुनगुनाया ।

पंख फैला कर उड़ा आकाश में भी ,
सृजन के ही गीत लिक्खे नाश में भी,
अनुभवों का वृक्ष यूँ फलता रहा,
मेरे भीतर का पथिक चलता रहा !

स्नेह कुछ से, और कुछ से उपेक्षा ,
हर कदम पर दी है मैंने परीक्षा ,
निकट हूँ हृदयों के तो हूँ दूर भी ,
अगर कायर हूँ तो हूँ मैं शूर भी ।

मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने साथ छोड़ा,
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ का साथ पाया ,
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने दी बधाई
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने मुँह की खायी !

आज किंतु परिस्थितियां हैं अलग सी,
मैंने स्वयं को युद्ध का न्यौता दिया है
मानव भी मैं, दानव भी मैं ही,
मैंने ही अमृत और हालाहल पिया है !

मैंने ही साधा है निशाना स्वयं पर,
और निर्मम, क्रूर होता जा रहा हूँ !
मैं किसी पर क्यों भला ऊँगली उठाऊँ
मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ!


- संकर्षण गिरि