छलकते नयनों से दो चार ,
बूँद में बह गया सारा प्यार !
चिता की धूम्र उठी नभ में ,
उठा ले गया मिट्टी कुम्हार !
वहाँ तक बचपन आ पहुँचा ,
जहाँ पर सीमित है अधिकार !
रात ने सूनेपन के साथ ,
अँधेरा मुझसे लिया उधार !
मैं तब भी बहुत अकेला हूँ ,
कि जब ये पृथ्वी है परिवार !
- संकर्षण गिरि