छलकते नयनों से दो चार ,
बूँद में बह गया सारा प्यार !
चिता की धूम्र उठी नभ में ,
उठा ले गया मिट्टी कुम्हार !
वहाँ तक बचपन आ पहुँचा ,
जहाँ पर सीमित है अधिकार !
रात ने सूनेपन के साथ ,
अँधेरा मुझसे लिया उधार !
मैं तब भी बहुत अकेला हूँ ,
कि जब ये पृथ्वी है परिवार !
- संकर्षण गिरि
khubsoorat....... i like it
जवाब देंहटाएं:) Protsaahan ke liye shukria...
जवाब देंहटाएंBahut kathin hai mere liye is kavita ko samajhna. fir bhi jitna samajh saka hu achha kag raha hai.
जवाब देंहटाएंexellent and deep views//
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में प्रभावी प्रस्तुति - बधाई एवं शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंShukriya! :)
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