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शनिवार, 17 सितंबर 2011

एक अजब - सा द्वन्द्व मन में ...






इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



क्या करूँ , थोडा व्यथित हूँ ,

स्वयं से ही मैं चकित हूँ ,

क्यों मुझे संघर्ष करना पड़ रहा इन्द्रिय - दमन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



पत्थर बनूँ या फूल कोमल ,

फ़ैसला करने में असफल ,

उर को जब भी ठेस पहुँची , आ गए आँसू नयन में !

एक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



लक्ष्य दीखता सामने है ,

ताक़त नहीं पर पाँव में है ,

हँस दूँ अपने भाग्य पर या डूब जाऊँ मैं रुदन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



पूर्णता संभव नहीं है ,

कहता मेरा अनुभव यही है ,

गंध तो होता है किन्तु कीट भी होते सुमन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !




- संकर्षण गिरि