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रविवार, 30 मई 2010

साबुन



हत्यारा
नहा रहा था
कि साबुन उसकी आँखों में घुस गया
हत्यारे ने साबुन फेंक दिया !

साबुन मरने वाली चीज़ नहीं थी
हत्यारा गया और दुकानदार को मार लाया !

हत्यारे ने खून के हाथ
साबुन से धोये
साबुन हत्यारे को भाने लगा !

साबुन अपनी जगह
बनाने लगा !


-- विष्णु नागर

बुधवार, 26 मई 2010

लुटेरा



छीन ली उसने
चेहरे की हमेशा खिली रहने वाली मुस्कान ,

बड़ी बेरहमी से खींच ली
गले में लटकी हुई साँसों की डोर ;

फफक कर रो पड़े सब
जिंदगी को मौत में तब्दील होता देख,

लूट कर सबकी खुशियाँ
गुम हो गया वो आसमान में
घने काले बादलों के बीच !

कोई बताये
कि ईश्वर लुटेरा है क्या ?


-- संकर्षण गिरि

मंगलवार, 18 मई 2010

जितनी सागर की लहरें हैं...


जितनी सागर की लहरें हैं , उतने ही हैं बूँद नयन में !


तब मैंने बाहें फैलायीं

लड़खड़ा रहा था जब प्रकाश ,

तब मैंने उसके दुःख बाँटे

सिमटा जाता था जब आकाश ;

मैंने पूरा सहयोग दिया

जिसकी जैसी भी व्यथा रही ,

तब आशा की किरणें लाया

जब दिखा मुझे कोई निराश !

आँसू पी कर मुस्कान बिखेरा है मैंने सबके जीवन में ।

जितनी सागर की लहरें हैं उतने ही हैं बूँद नयन में !


सब कुछ पाने के बाद भी

कुछ खोने का अहसास है !

उर क्यों अतृप्त है पता नहीं

मन क्यों इन दिनों उदास है ;

कब तलक , कहाँ तक सीधा रस्ता

मिलेगा जीवन में ,

भटक रही है सोच मेरी

मिल गया इसे वनवास है !

शिथिल - सी मेरी चाल देख ताकत - सी आई क्रूर पवन में !

जितनी सागर की लहरें हैं उतने ही हैं बूँद नयन में !



-- संकर्षण गिरि

वहम



अँधेरे को अंजुरी में भर कर
होठों से लगा लिया है मैंने !

पी रहा हूँ अँधेरा ,
ठीक उसी तरह
जैसे महर्षि अगस्त्य ने
समुद्र को पी कर बुझाई थी प्यास अपनी

छा गया उजाला मेरे आस पास
मालूम हो गया मुझे ठिकाना मेरा !

लेकिन साथ ही
कहीं गुम भी हो गया हूँ मैं ,
मेरे भीतर के अँधेरे ने
छीन ली है पहचान मेरी
मारा - मारा ढूँढता फिरता हूँ मैं स्वयं को ही !

और उम्मीद का दीया है
कि
जलने का नाम नहीं लेता ,
विश्वास की बाती कहीं खो गयी है शायद ...


मुझे लगता है -
आस पास का उजाला
वास्तव में अँधेरे का ही मायावी रूप है !

जब तक ह्रदय रौशन हो जाए ,
रौशनी महज एक वहम है ,
आँखों का फरेब है ,
दरख़्त पर लटकता हुआ आसेब है !


-- संकर्षण गिरि

रविवार, 16 मई 2010

परिपक्वता



लोग कहते हैं
मैं परिपक्व नहीं ;
बचपना है मेरे भीतर
यथार्थ में नहीं जीता मैं !

मुझे रोना नहीं आता ,
मगरमच्छ के आंसू भी बहाने नहीं आते मुझे ...
हाँ, परिपक्व नहीं हूँ मैं !

प्यार करता हूँ
मज़बूर हो कर नहीं -
प्यार पर भरोसा है
इसलिए करता हूँ ...
टूट कर , बिखर कर ,
दुत्कार दिए जाने के बाद भी !
बचपना गया नहीं अब तक !

मैंने ढोया है अपने कंधे पर ,
लोगों की परिपक्वताओं का बोझ !
कई बार टूटा हूँ मैं ...


दुनिया वालों ,
मुझे नादान ही रहने दो
टूटना मंज़ूर है मुझे ,
तोडना मेरे बस की बात नहीं !
परिपक्वता मेरे पास नहीं ... !


-- संकर्षण गिरि

जिसे इश्क़ का रोग लगा है !



जिसे इश्क़ का रोग लगा है !

उससे पूछो क्या इंतज़ार ,
क्या प्यास और क्या है ख़ुमार ?
वो बतलायेगा सही किसी की याद में जो हर रात जगा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !


कितनों की पूरी हुई चाह ,
कुछ लुटे यहाँ पर बीच राह ,
कितनों को बेरहम वक़्त ने ला क़रीब दे दिया दगा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !


प्रेयसी को पाने का जूनून ,
पहुँचाता है उसको सुकून ,
कहता महबूबा की याद में रोने का भी अलग मज़ा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !
जिसे इश्क़ का रोग लगा है !


-- संकर्षण गिरि


शनिवार, 15 मई 2010

कुछ लोग - एक ग़ज़ल



सूखे
हुए पत्ते की तरह झरते हैं कुछ लोग ,
खुद को भी बेचने से नहीं डरते हैं कुछ लोग !

तहजीब को मिट्टी का खिलौना समझते हैं ,
जब जी में आया तोड़ दिया करते हैं कुछ लोग !

ज़िन्दगी को उनसे बेहतर कौन समझेगा ,
लाश बन कर भी ज़मीं पर रहते हैं कुछ लोग !

नजदीकियाँ बढती हैं ख़यालात मिलने से ,
आँखों के रस्ते दिल में उतरते हैं कुछ लोग !

गाँव में पक्की सड़क होने के बावज़ूद ,
पगडंडियों , खेतों से ही गुजरते हैं कुछ लोग !

दर्द सीने से लगाए रखते हैं अहले वफ़ा ,
नमक से ही ज़ख्म अपने भरते हैं कुछ लोग !

'गिरि' को खुद नहीं पता की उसमें ख़ासियत क्या है ,
कहीं आहें भरते हैं तो कहीं मरते हैं कुछ लोग !


-- संकर्षण गिरि

गुरुवार, 13 मई 2010

जिजीविषा



नींद खुली तो खुद को पाया
दूर देह से,
दूर गेह से !

निस्पंद पड़ा था मैं ज़मीन पर,
मुख पर आभा थी
आँखों में कुछ सपने थे,
पर सपनोंके पूर्ण होने से पहले ही
साँसों के धागे टूट गए,
जीवन
को विश्राम मिला,
सब संगी साथी छूट गए !

मैं स्वयं ही जिनका संबल था,
जो फूला नहीं समाते थे
हर छोटी खुशियों में मेरी !

वो फफक फफक कर रोते हैं,
मैं उन्हें नहीं छू भी सकता ,
कैसे पोंछूं आँसू उनके ?

कैसे आभास दिलाऊँ की
मैं भले देह से अलग अभी ,
पर छोड़ उनको पाया हूँ ,
और छोड़ उनको पाऊंगा !

ये क्या रहस्य है ,
कुछ भी अपने नहीं है वश में ,
आया था किस ओर, कहाँ से ,
किसने भेजा , क्या करने को ?


खुद की तलाश करते करते
एक मोड़ मिली मैं जहाँ स्वयं को
लाश रूप में पाता हूँ ;
कुछ पल के लिए ठिठक कर सोचा ,
जाना भी वश की बात नहीं ,
जो होना है वो सब तय है ,
पर नचा रहा जो उंगली पर ,
उसका आखिर क्या परिचय है ?

मैं छोड़ उनको पाता हूँ ,
मैं छोड़ उनको पाऊंगा ,
जो मेरा माथा सहला कर ,
चुपचाप पड़े हैं बेसुध से !

ये किसने खींचा ? आह , अरे ,
दीखता भी नहीं, रुकता भी नहीं !
छोडो , रहने दो मुझे यहीं ,
करने तो दो एक काम मुझे अपने वश का ,
मंजिल मेरी है यही ठिकाना है मेरा !

पर कौन सुने ? ये सफ़र अभी भी बाक़ी है -
वो सफ़र की जिसका आदि - अंत अज्ञात !

मैं विवश व्योम की ओर चला
आँखों
में ये आशा ले कर -
शायद मिलने का अवसर है ,
बरसों से जिसकी थी तलाश !

लेकिन मैं वापस आऊँगा ...

जो इसी प्रतीक्षा में हैं की
मैं उठूँगा सो कर
और करूँगा बातें उनसे !

जिनको मैं छोड़ पाऊंगा
मैं उनके लिए ही आऊँगा
मैं उनके लिए ही आऊँगा ... !

-- संकर्षण गिरि