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गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014



प्रारब्ध

मैं अभी राह पर पड़ा हुआ एक पत्थर हूँ ,
आओ मुझको ठोकर मारो , कुछ खेल करो !
किन्तु किसी विधि मैं पहुँच गया जो मंदिर में ,
तुम ही मुझको पूजोगे , भोग लगाओगे !!


- संकर्षण गिरि

बुधवार, 2 जुलाई 2014


निवारण


मेरी बुद्धि पर अंधकार का ये जो आवरण है !
यही मेरे पतन का एकमात्र कारण है !!

सहिष्णुता से वैर , इन्द्रियाँ वश में नहीं !
स्वजनों से दूर करता मुझे मेरा आचरण है !!

सृजन की अभिलाषा मूर्त रूप न ले सकी !
मेरी अकर्मण्यता इसका एकमात्र उदाहरण है !!

रूप की तृष्णा ने जीवन को मरुस्थल कर दिया !
मृग की सौंदर्य - पिपासा क्षणिक नहीं , आमरण है !!

ज्ञान - चक्षुओं के बस खुलने की देर है !
मेरी समस्त बुराइयों का इनमें निवारण है !!

- संकर्षण गिरि

रविवार, 9 मार्च 2014

फल

 
 
मिट्टी  को थोड़ा मृदु बना 
मैंने बोया था बीज एक ,
खाद दिया, जल - धूप - छाँह 
पर बाधा आती रही अनेक !
 
 
मिट्टी में तब अंकुर फूटे 
जब स्वेद बहा , उद्योग हुआ 
संपर्क नए नित बढ़े जभी 
पौधे को हिल - मिल रोग हुआ !
 
 
ये रोग पड़ा भारी मुझ पर 
माली था , त्याग न सकता था । 
आती विपदा पर पौधे को 
कातर दृष्टि से तकता था । 
 
 
एक दुष्ट पवन के झोंके को
ऐसे अवसर की थी तलाश ,
जब माली जाए दूर कहीं 
वो पौधे का कर सके नाश । 
 
 
वो समय भयानक आया भी 
जब बिखर गयी डाली - डाली , 
जड़ भूमि से था अलग हुआ 
जब दूर कहीं पर था माली !
 
 
मूढ़ स्वयं को कहूँ या कि 
सब दोष नियति पर ही मढ़ दूँ 
चिंतित हो कर सोचता रहूँ या 
एक नयी दुनिया गढ़ लूँ !!
 
 
- संकर्षण गिरि