ज़िन्दगी को टटोल कर देखा
तो वक़्त के कुछ टुकड़े हाथ में आ गए
और टुकड़े भी ऐसे ,
कि जिनकी कोई पहचान नहीं !
ख़ुशी वाले वक़्त के टुकड़े हैं
या ग़म के ,
आशा के हैं या निराशा को जन्म देने वाले ...
कुछ भी तो नहीं मालूम !
क्या करूँ मैं इनको ले कर ?
ज़िन्दगी की चादर अभी फटी भी तो नहीं ,
वरना कोई टुकड़ा उठा कर पैबंद ही लगा देता
ज़िन्दगी वक़्त को
पहले से कोई नाम दे कर नहीं रखती ;
ज़िन्दगी की जेब में वज़न तो है
पर है वो उसी के काम की ।
किसी जेबकतरे को रोना ही आएगा अपने नसीब पे ...
शायद इसीलिए ,
पहेली कहते हैं ज़िन्दगी को ।
बेहतर है
इन टुकड़ों को वहीं रख दूँ
जहाँ से ये हाथ लगे थे . . . !!!
- संकर्षण गिरि