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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

भरोसा

आँखों में एक अजब उदासी ,
चलने की गति भी धीमी है ,
दिल में कुछ खलबली मची है ,
बार - बार बस वही बात
है घूम रही मन के आँगन में ,
कैसे मुझसे हुई भूल यह ,
कैसे मुझको मिलने वाली सजा
मिल गयी और किसी को !

उसने मुझको मान दिया था
पूरा था विश्वास उसे कि
मेरे होने भर से उसको आँच नहीं कोई आएगी !

आँच नहीं आयी लेकिन
मैं आत्म ग्लानी में जल कर जैसे
ख़ाक हुआ - सा जाता हूँ ।
कैसे खुद को समझाऊं कि
जो हुआ उसे बेहतर भूलो
औरों को भी ऊंचाई दो ,
सब के संग फलो फूलो !

मन को राहत मिली
शून्य को तकते तकते आँख लगी जब ।

आशा है आँखें खुलने तक ,
दिल को बात समझ आ जाए !

-- संकर्षण गिरि

शनिवार, 10 जुलाई 2010

ईश्वर के टुकड़े



वो जो नहीं दीखता , उसकी उपासना ,
और जो सामने है , उसकी अवहेलना करते हैं ,
परलोक सुधारने के लिए हम
न जाने क्या क्या भेस धरते हैं...!

कोई पत्थर की पूजा करता है ,
कोई बुतफ़रोश है ,
कोई अहिंसा का पुजारी है ,
कोई हिंसा के नाम पर ख़ामोश है !
अलग अलग धर्मों के अलग अलग पंगे हैं ,
ईश्वर के अल्लाह के नियम कितने बेढंगे हैं !
हम स्वर्ग या जन्नत की लालसा में मरते हैं ...

ऊपर वाला अब एक नहीं ,
इंसान अब नेक नहीं ,
हिन्दू और मुस्लिम के बीच दंगे आम हैं ,
तो क्या ईश्वर और अल्लाह का भी यही काम है ?
धर्म के ढकोसले आदमी को आदमी से दूर करते हैं !


-- संकर्षण गिरि

चलता ही रहा...

चलता ही रहा , न रुकने का अवकाश मिला !

आसान रहा तो कभी रास्ता सख्त रहा ,
खोया पाया सोया जागा और मस्त रहा ,
जहाँ पर ज़मीं ख़त्म हो गयी वहीं आकाश मिला !
चलता ही रहा , न रुकने का अवकाश मिला !

दरिया को लाँघा , आँधी को दी राह और ,
एक ठिकाना नहीं , रहा मैं कई ठौर ,
गिरि की तलाश थी , तूर मिला कैलाश मिला !
चलता ही रहा , न रुकने का अवकाश मिला !

-- संकर्षण गिरि