आँखों में एक अजब उदासी ,
चलने की गति भी धीमी है ,
दिल में कुछ खलबली मची है ,
बार - बार बस वही बात
है घूम रही मन के आँगन में ,
कैसे मुझसे हुई भूल यह ,
कैसे मुझको मिलने वाली सजा
मिल गयी और किसी को !
उसने मुझको मान दिया था
पूरा था विश्वास उसे कि
मेरे होने भर से उसको आँच नहीं कोई आएगी !
आँच नहीं आयी लेकिन
मैं आत्म ग्लानी में जल कर जैसे
ख़ाक हुआ - सा जाता हूँ ।
कैसे खुद को समझाऊं कि
जो हुआ उसे बेहतर भूलो
औरों को भी ऊंचाई दो ,
सब के संग फलो फूलो !
मन को राहत मिली
शून्य को तकते तकते आँख लगी जब ।
आशा है आँखें खुलने तक ,
दिल को बात समझ आ जाए !
-- संकर्षण गिरि
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