अँधेरे को अंजुरी में भर कर
होठों से लगा लिया है मैंने !पी रहा हूँ अँधेरा ,
ठीक उसी तरह
जैसे महर्षि अगस्त्य ने
समुद्र को पी कर बुझाई थी प्यास अपनी ।
छा गया उजाला मेरे आस पास
मालूम हो गया मुझे ठिकाना मेरा !
लेकिन साथ ही
कहीं गुम भी हो गया हूँ मैं ,
मेरे भीतर के अँधेरे ने
छीन ली है पहचान मेरी
मारा - मारा ढूँढता फिरता हूँ मैं स्वयं को ही !
और उम्मीद का दीया है
कि जलने का नाम नहीं लेता ,
विश्वास की बाती कहीं खो गयी है शायद ...
मुझे लगता है -
आस पास का उजालाजब तक ह्रदय रौशन न हो जाए ,
रौशनी महज एक वहम है ,
आँखों का फरेब है ,
दरख़्त पर लटकता हुआ आसेब है !
-- संकर्षण गिरि
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