MyBlog


View My Stats

मंगलवार, 18 मई 2010

वहम



अँधेरे को अंजुरी में भर कर
होठों से लगा लिया है मैंने !

पी रहा हूँ अँधेरा ,
ठीक उसी तरह
जैसे महर्षि अगस्त्य ने
समुद्र को पी कर बुझाई थी प्यास अपनी

छा गया उजाला मेरे आस पास
मालूम हो गया मुझे ठिकाना मेरा !

लेकिन साथ ही
कहीं गुम भी हो गया हूँ मैं ,
मेरे भीतर के अँधेरे ने
छीन ली है पहचान मेरी
मारा - मारा ढूँढता फिरता हूँ मैं स्वयं को ही !

और उम्मीद का दीया है
कि
जलने का नाम नहीं लेता ,
विश्वास की बाती कहीं खो गयी है शायद ...


मुझे लगता है -
आस पास का उजाला
वास्तव में अँधेरे का ही मायावी रूप है !

जब तक ह्रदय रौशन हो जाए ,
रौशनी महज एक वहम है ,
आँखों का फरेब है ,
दरख़्त पर लटकता हुआ आसेब है !


-- संकर्षण गिरि

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें