जितनी सागर की लहरें हैं , उतने ही हैं बूँद नयन में !
तब मैंने बाहें फैलायीं
लड़खड़ा रहा था जब प्रकाश ,
तब मैंने उसके दुःख बाँटे
सिमटा जाता था जब आकाश ;
मैंने पूरा सहयोग दिया
जिसकी जैसी भी व्यथा रही ,
तब आशा की किरणें लाया
जब दिखा मुझे कोई निराश !
आँसू पी कर मुस्कान बिखेरा है मैंने सबके जीवन में ।
जितनी सागर की लहरें हैं उतने ही हैं बूँद नयन में !
सब कुछ पाने के बाद भी
कुछ खोने का अहसास है !
उर क्यों अतृप्त है पता नहीं
मन क्यों इन दिनों उदास है ;
कब तलक , कहाँ तक सीधा रस्ता
मिलेगा जीवन में ,
भटक रही है सोच मेरी
मिल गया इसे वनवास है !
शिथिल - सी मेरी चाल देख ताकत - सी आई क्रूर पवन में !
जितनी सागर की लहरें हैं उतने ही हैं बूँद नयन में !
-- संकर्षण गिरि
बहुत बढ़िया. लिखते रहो.
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