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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

जीवन ने मुझको खूब छला...



जीवन ने मुझको खूब छला !

जन्म और मृत्यु के बीच ,
खुद को डाला आँसू में सींच ,
शीतलता अनुभव करने के पहले मैं सौ - सौ बार जला !
जीवन ने मुझको खूब छला !

मैं गगन चाहता था छूना ,
और मिला मुझे पथ भी सूना ,
पार भाग्य ने हर उस राह को मोड़ा मैं जिसकी भी ओर चला !
जीवन ने मुझको खूब छला !

जीवन की परिभाषा क्या है ?
और मेरी अभिलाषा क्या है !
इस बर्बर उधेड़बुन की गोदी में हूँ मैं पला - बढ़ा !
जीवन ने मुझको खूब छला !


- संकर्षण गिरि

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