रविवार, 14 अगस्त 2011
चुभन
चुभती हुई यादें...
चुभती हुई कुछ यादें ,
अचानक ज़ेहन में आ कर ,
कर जाती हैं मन को खिन्न...
चुभती हुई यादें ,
बार - बार उन्हीं पलों में ले जाती हैं मुझे ,
जीने को मजबूर करती हैं
फिर से वही लम्हे !
और टूट कर
फिर से बिखर जाता हूँ मैं ;
दग्ध ह्रदय लिए
वर्तमान में वापस आता हूँ मैं ।
चुभती हुई यादें
ज़ख्म बन कर चिपक जाती हैं ... ज़िन्दगी से ...
और छिड़कती रहती हैं नमक ,
स्वयं पर ही ,
ताकि ज़ख्म हरा बना रहे... हमेशा !
और उनके अस्तित्व को
नज़र न लगे किसी शै की !
चुभती हुई यादों पर ,
मेरा कोई वश नहीं चल पता ।
स्वतः आती हैं वो ,
मेरे अस्तित्व को
छिन्न भिन्न कर लेने के बाद ,
आहिस्ते से
लोप हो जाती हैं वो !
- संकर्षण गिरि
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चुभती हुई यादें
जवाब देंहटाएंज़ख्म बन कर चिपक जाती हैं ... ज़िन्दगी से ...
और छिड़कती रहती हैं नमक ,
स्वयं पर ही ,
ताकि ज़ख्म हरा बना रहे... हमेशा !
और उनके अस्तित्व को
नज़र न लगे किसी शै की !
बहुत खूब संकर्षण भाई.यादों का खूब बढ़िया ताना बाना बुना है आपने.
जिस प्रकार भोजन का स्वाद मीठे, खट्टे,कडवे, तीखे आदि एहसासों के समन्वय से होता है वैसे ही जीवन में चुभन भरी यादों की भी अहमियत है....अच्छी रचना है
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