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शनिवार, 27 अगस्त 2011

किससे मैं उम्मीद करूँ ...


किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात !


कौन चाहता है मुझ पर मुस्कान खिले ,
किसको धुन है नींद चैन की सोऊँ मैं ?
है कद्र किसे जज़्बात , मेरे अहसासों की ,
कौन मुझे गलबाँही दे जब रोऊँ मैं ?
शुष्क पीत तरु की फुनगी , पतझर में जैसे फूल - पात !
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात ! !



हूँ विवश , ह्रदय का ताप सहन करता हूँ ,
निज स्वप्न - हविष से यज्ञ - हवन करता हूँ ;
खुश होता है जग रौंद मेरी अभिलाषा को ,
मैं यूँ अपना अस्तित्व ग्रहण करता हूँ !
है दबा हुआ मेरे भीतर एक भीषण झंझावात !
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात !!

-- संकर्षण गिरि

7 टिप्‍पणियां:

  1. अंतर्मन के भावों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है कविता . अच्छी रचना है .
    एक सुझाव है की दूसरे स्तान्ज़ा की दूसरी पंक्ति में "हविष बना कर" के स्थान पर " हविष बना," लिखने से अच्छा फ्लो आ रहा है यदि सही समझें तो बदलाव कर के देखें.

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  2. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 29-08-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  3. Meri kavita ko is yogya samajhne ke liye haardik dhanyawaad, Ghaafil Saahab! :)

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  4. @Ajay Bharti -
    Aapka kahna sahi hai Mausa ji... par us pankti me se 'kar' nikaal dene se us sthaan par ek rukaawat aa ja rahi hai jo mujhe sahi nahi lag raha! Par haan, maatra ki drishti se is pankti me nissandeh sudhaar karne ki aawashyakta hai, aur is par mere dwara sanshodhan jald hi kiya jayega...

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  5. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....

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