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शनिवार, 17 सितंबर 2011

एक अजब - सा द्वन्द्व मन में ...






इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



क्या करूँ , थोडा व्यथित हूँ ,

स्वयं से ही मैं चकित हूँ ,

क्यों मुझे संघर्ष करना पड़ रहा इन्द्रिय - दमन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



पत्थर बनूँ या फूल कोमल ,

फ़ैसला करने में असफल ,

उर को जब भी ठेस पहुँची , आ गए आँसू नयन में !

एक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



लक्ष्य दीखता सामने है ,

ताक़त नहीं पर पाँव में है ,

हँस दूँ अपने भाग्य पर या डूब जाऊँ मैं रुदन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



पूर्णता संभव नहीं है ,

कहता मेरा अनुभव यही है ,

गंध तो होता है किन्तु कीट भी होते सुमन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !




- संकर्षण गिरि

5 टिप्‍पणियां:

  1. bahut acchi kavita hai... :)

    gandh ke sath keet bhi hote hai pusp mein

    जवाब देंहटाएं
  2. स्वाभाविक है द्वंद्व मन में
    द्वंद्व है धरती-गगन में
    द्वंद्व का घर ही है मन में
    द्वंद्व ही वन में, चमन में

    द्वंद्व से लड़ना ही जीवन
    द्वंद्व से भिड़ना ही जीवन
    द्वंद्व पर हो विजय हासिल
    लक्ष्य गर हो पुष्ट मन में

    बहुत अच्छी aur sundar अभिव्यक्ति है .

    जवाब देंहटाएं