बहुत दिनों से सोच रहा था मैं भी कविता लिखूँ ,
आज लेखनी उछल पड़ी है क्या करती है देखूँ !
बालक मैं नादान बहुत हूँ कविता टेढ़ी खीर ,
अरे लेखनि ! क्यों उठती है तेरे दिल में पीर ?
इसीलिए कि पिता जी मेरे कविता करते रहते हैं ,
और मेरे अग्रज जी भी इस धुन में आगे रहते हैं ?
जब इस घर में सब कोई कविता में डूबा रहता है ,
मैं क्यों एक अपवाद रहूँ यह ह्रदय कोसता रहता है !
किन्तु कैसे लिख पाउँगा सोच सोच घबराता हूँ ,
प्रथम प्रयास में आज ये अपना पहला कदम बढाता हूँ !
हो सकता है लिखते लिखते कुछ अच्छा लिख जाऊंगा ,
पितृ - चरण चिन्हों पर चल कर अंतर का सुख पाऊंगा !
- संकर्षण गिरि
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