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गुरुवार, 9 जून 2011

छलकते नयनों से दो चार...

छलकते नयनों से दो चार ,
बूँद में बह गया सारा प्यार !

चिता की धूम्र उठी नभ में ,
उठा ले गया मिट्टी कुम्हार !

वहाँ तक बचपन आ पहुँचा ,
जहाँ पर सीमित है अधिकार !

रात ने सूनेपन के साथ ,
अँधेरा मुझसे लिया उधार !

मैं तब भी बहुत अकेला हूँ ,
कि जब ये पृथ्वी है परिवार !


- संकर्षण गिरि

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