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सोमवार, 12 मार्च 2012

भीष्म की विवशता

कुरुक्षेत्र की युद्ध - भूमि के समान है जीवन ,
इंसान जिसमें
महाभारत के किसी पात्र को जीता है ।
अपना सर्वस्व दे कर ,
विजय की आशा में युद्ध करता है ...
पराजित हो कर जीवन का मार्ग अवरुद्ध करता है ;
और जयी होता है तो
जीवन को संतुलित और शुद्ध करता है ।


मैंने भी जिया है कुरुक्षेत्र को ।
जीवन - समर में खड़े हो कर
भीष्म बन ...
कई बार
अपने अस्तित्व को ललकारा है मैंने ,
विवशता ने हर बार
उद्विग्न किया है मेरा ह्रदय !


आज बाण - शय्या पर लेटा हूँ !
अर्जुन का पात्र निभा रही एक ज़िन्दगी ने ,
शब्दों के बाण चलाये हैं मेरे ऊपर ...
और बिंध गया हूँ पूर्णतः ,
इस ब्रह्मास्त्र से मैं !

लहू लुहान है शरीर , छलनी है ह्रदय !

ह्रदय छलनी है क्योंकि
भीष्म के सर्वप्रिय अर्जुन को ,
विजय के अतिशय उन्माद में
ग्लानि - युक्त भाव भी नहीं आये ,
हाय , नियति ने ये कैसे दिन दिखाए !


इच्छा - मृत्यु के वरदान से वंचित हूँ ,
बाण - शय्या के साथ ही जीना है मुझे ,
शब्दों का विष आगे भी पीना है मुझे ...!




- संकर्षण गिरि

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