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शनिवार, 15 मई 2010

कुछ लोग - एक ग़ज़ल



सूखे
हुए पत्ते की तरह झरते हैं कुछ लोग ,
खुद को भी बेचने से नहीं डरते हैं कुछ लोग !

तहजीब को मिट्टी का खिलौना समझते हैं ,
जब जी में आया तोड़ दिया करते हैं कुछ लोग !

ज़िन्दगी को उनसे बेहतर कौन समझेगा ,
लाश बन कर भी ज़मीं पर रहते हैं कुछ लोग !

नजदीकियाँ बढती हैं ख़यालात मिलने से ,
आँखों के रस्ते दिल में उतरते हैं कुछ लोग !

गाँव में पक्की सड़क होने के बावज़ूद ,
पगडंडियों , खेतों से ही गुजरते हैं कुछ लोग !

दर्द सीने से लगाए रखते हैं अहले वफ़ा ,
नमक से ही ज़ख्म अपने भरते हैं कुछ लोग !

'गिरि' को खुद नहीं पता की उसमें ख़ासियत क्या है ,
कहीं आहें भरते हैं तो कहीं मरते हैं कुछ लोग !


-- संकर्षण गिरि

2 टिप्‍पणियां:

  1. 6th लाइन में ज़िंदा हटा सकते हो. क्योंकि जब लाश और ज़मीन पर रहते हैं कुछ लोग तो ज़िंदा एक्स्ट्रा लगता है, पढ़ने के लिहाज से भी ज्यादा सरल ह्पो जाएगा. देख लेना. keep it up.
    और अंतिम लाइन में
    कहीं आहें भरते हैं तो कहीं मरते हैं कुछ लोग
    पढ़ने में सुगम लगेगा.
    बाकी सारे शेर लाजवाब हैं. जहां से भी आये ideas लाजवाब हैं.

    जवाब देंहटाएं