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गुरुवार, 13 मई 2010

जिजीविषा



नींद खुली तो खुद को पाया
दूर देह से,
दूर गेह से !

निस्पंद पड़ा था मैं ज़मीन पर,
मुख पर आभा थी
आँखों में कुछ सपने थे,
पर सपनोंके पूर्ण होने से पहले ही
साँसों के धागे टूट गए,
जीवन
को विश्राम मिला,
सब संगी साथी छूट गए !

मैं स्वयं ही जिनका संबल था,
जो फूला नहीं समाते थे
हर छोटी खुशियों में मेरी !

वो फफक फफक कर रोते हैं,
मैं उन्हें नहीं छू भी सकता ,
कैसे पोंछूं आँसू उनके ?

कैसे आभास दिलाऊँ की
मैं भले देह से अलग अभी ,
पर छोड़ उनको पाया हूँ ,
और छोड़ उनको पाऊंगा !

ये क्या रहस्य है ,
कुछ भी अपने नहीं है वश में ,
आया था किस ओर, कहाँ से ,
किसने भेजा , क्या करने को ?


खुद की तलाश करते करते
एक मोड़ मिली मैं जहाँ स्वयं को
लाश रूप में पाता हूँ ;
कुछ पल के लिए ठिठक कर सोचा ,
जाना भी वश की बात नहीं ,
जो होना है वो सब तय है ,
पर नचा रहा जो उंगली पर ,
उसका आखिर क्या परिचय है ?

मैं छोड़ उनको पाता हूँ ,
मैं छोड़ उनको पाऊंगा ,
जो मेरा माथा सहला कर ,
चुपचाप पड़े हैं बेसुध से !

ये किसने खींचा ? आह , अरे ,
दीखता भी नहीं, रुकता भी नहीं !
छोडो , रहने दो मुझे यहीं ,
करने तो दो एक काम मुझे अपने वश का ,
मंजिल मेरी है यही ठिकाना है मेरा !

पर कौन सुने ? ये सफ़र अभी भी बाक़ी है -
वो सफ़र की जिसका आदि - अंत अज्ञात !

मैं विवश व्योम की ओर चला
आँखों
में ये आशा ले कर -
शायद मिलने का अवसर है ,
बरसों से जिसकी थी तलाश !

लेकिन मैं वापस आऊँगा ...

जो इसी प्रतीक्षा में हैं की
मैं उठूँगा सो कर
और करूँगा बातें उनसे !

जिनको मैं छोड़ पाऊंगा
मैं उनके लिए ही आऊँगा
मैं उनके लिए ही आऊँगा ... !

-- संकर्षण गिरि

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