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रविवार, 16 मई 2010
परिपक्वता
लोग
कहते हैं
मैं परिपक्व नहीं ;
बचपना है मेरे भीतर
यथार्थ में नहीं जीता मैं !
मुझे रोना नहीं आता ,
मगरमच्छ के आंसू भी बहाने नहीं आते मुझे ...
हाँ, परिपक्व नहीं हूँ मैं !
प्यार करता हूँ
मज़बूर हो कर नहीं -
प्यार पर भरोसा है
इसलिए करता हूँ ...
टूट कर , बिखर कर ,
दुत्कार दिए जाने के बाद भी !
बचपना गया नहीं अब तक !
मैंने ढोया है अपने कंधे पर ,
लोगों की परिपक्वताओं का बोझ !
कई बार टूटा हूँ मैं ...
दुनिया वालों ,
मुझे नादान ही रहने दो
टूटना मंज़ूर है मुझे ,
तोडना मेरे बस की बात नहीं !
परिपक्वता मेरे पास नहीं ... !
-- संकर्षण गिरि
1 टिप्पणी:
आकर्षण गिरि
16 मई 2010 को 6:34 am बजे
वाह क्या बात है. क्या खूब लिख रहे हो. बहुत बढ़िया. लिखते रहो
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वाह क्या बात है. क्या खूब लिख रहे हो. बहुत बढ़िया. लिखते रहो
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