आस अभी भी... प्यास अभी भी...
शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016
बुधवार, 2 नवंबर 2016
मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ !
एक समय था मैं पिता का हाथ थामे
साथ चलता था कि खो न जाऊँ कहीं ,
और माँ की गोद में था खेलता रहता
निर्भीक हो कर ज्यों समूची दुनिया हो वहीं!
एक समय है राह पर काँटे ही काँटे हैं,
और अकेले ही मुझे उस पर जाना है,
भय, निराशा को, सभी अपमान को पी कर,
कनिष्ठा से वृहत गोवर्धन उठाना है !
हाँ, ये सच है बोझ कंधे पर रखे मैंने,
और मीलों तक चला, ठोकर भी खाया ,
और गिरा, गिर कर उठा, उठ कर चला
दर्द में भी मुस्कुराया, गुनगुनाया ।
पंख फैला कर उड़ा आकाश में भी ,
सृजन के ही गीत लिक्खे नाश में भी,
अनुभवों का वृक्ष यूँ फलता रहा,
मेरे भीतर का पथिक चलता रहा !
स्नेह कुछ से, और कुछ से उपेक्षा ,
हर कदम पर दी है मैंने परीक्षा ,
निकट हूँ हृदयों के तो हूँ दूर भी ,
अगर कायर हूँ तो हूँ मैं शूर भी ।
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने साथ छोड़ा,
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ का साथ पाया ,
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने दी बधाई
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने मुँह की खायी !
आज किंतु परिस्थितियां हैं अलग सी,
मैंने स्वयं को युद्ध का न्यौता दिया है
मानव भी मैं, दानव भी मैं ही,
मैंने ही अमृत और हालाहल पिया है !
मैंने ही साधा है निशाना स्वयं पर,
और निर्मम, क्रूर होता जा रहा हूँ !
मैं किसी पर क्यों भला ऊँगली उठाऊँ
मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ!
- संकर्षण गिरि
गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014
बुधवार, 2 जुलाई 2014
निवारण
मेरी बुद्धि पर अंधकार का ये जो आवरण है !
यही मेरे पतन का एकमात्र कारण है !!
सहिष्णुता से वैर , इन्द्रियाँ वश में नहीं !
स्वजनों से दूर करता मुझे मेरा आचरण है !!
सृजन की अभिलाषा मूर्त रूप न ले सकी !
मेरी अकर्मण्यता इसका एकमात्र उदाहरण है !!
रूप की तृष्णा ने जीवन को मरुस्थल कर दिया !
मृग की सौंदर्य - पिपासा क्षणिक नहीं , आमरण है !!
ज्ञान - चक्षुओं के बस खुलने की देर है !
मेरी समस्त बुराइयों का इनमें निवारण है !!
- संकर्षण गिरि
रविवार, 9 मार्च 2014
फल
सोमवार, 18 फ़रवरी 2013
गुरुवार, 20 सितंबर 2012
टुकड़े
ज़िन्दगी को टटोल कर देखा
तो वक़्त के कुछ टुकड़े हाथ में आ गए
और टुकड़े भी ऐसे ,
कि जिनकी कोई पहचान नहीं !
ख़ुशी वाले वक़्त के टुकड़े हैं
या ग़म के ,
आशा के हैं या निराशा को जन्म देने वाले ...
कुछ भी तो नहीं मालूम !
क्या करूँ मैं इनको ले कर ?
ज़िन्दगी की चादर अभी फटी भी तो नहीं ,
वरना कोई टुकड़ा उठा कर पैबंद ही लगा देता
ज़िन्दगी वक़्त को
पहले से कोई नाम दे कर नहीं रखती ;
ज़िन्दगी की जेब में वज़न तो है
पर है वो उसी के काम की ।
किसी जेबकतरे को रोना ही आएगा अपने नसीब पे ...
शायद इसीलिए ,
पहेली कहते हैं ज़िन्दगी को ।
बेहतर है
इन टुकड़ों को वहीं रख दूँ
जहाँ से ये हाथ लगे थे . . . !!!
- संकर्षण गिरि
सोमवार, 12 मार्च 2012
भीष्म की विवशता
इंसान जिसमें
महाभारत के किसी पात्र को जीता है ।
अपना सर्वस्व दे कर ,
विजय की आशा में युद्ध करता है ...
पराजित हो कर जीवन का मार्ग अवरुद्ध करता है ;
और जयी होता है तो
जीवन को संतुलित और शुद्ध करता है ।
मैंने भी जिया है कुरुक्षेत्र को ।
जीवन - समर में खड़े हो कर
भीष्म बन ...
कई बार
अपने अस्तित्व को ललकारा है मैंने ,
विवशता ने हर बार
उद्विग्न किया है मेरा ह्रदय !
आज बाण - शय्या पर लेटा हूँ !
अर्जुन का पात्र निभा रही एक ज़िन्दगी ने ,
शब्दों के बाण चलाये हैं मेरे ऊपर ...
और बिंध गया हूँ पूर्णतः ,
इस ब्रह्मास्त्र से मैं !
लहू लुहान है शरीर , छलनी है ह्रदय !
ह्रदय छलनी है क्योंकि
भीष्म के सर्वप्रिय अर्जुन को ,
विजय के अतिशय उन्माद में
ग्लानि - युक्त भाव भी नहीं आये ,
हाय , नियति ने ये कैसे दिन दिखाए !
इच्छा - मृत्यु के वरदान से वंचित हूँ ,
बाण - शय्या के साथ ही जीना है मुझे ,
शब्दों का विष आगे भी पीना है मुझे ...!
- संकर्षण गिरि
शनिवार, 10 मार्च 2012
ग़ज़ल
मैं ज़माने की जलती निगाहों के बीच बड़ा हुआ !!
बड़ा अनमोल हूँ लेकिन पहुँच से दूर हूँ सबकी !
मुझे वो ढूँढ लेंगे , एक खज़ाना हूँ गड़ा हुआ !!
मेरी आँखों में सपने और मेरे पाँव में छाले !
मेरे है सामने मंज़िल औ' मैं गुमसुम , डरा हुआ !!
मुझे बेशक़ बुरा समझे कोई , बिसरे कोई !
मैं अपने आप में उलझा हुआ , उखड़ा हुआ !!
बहुत ही पाक़ नज़रों से मुझे देखा किये !
मेरा महबूब मेरे रग-रग में है भरा हुआ !!
- संकर्षण गिरि
बुधवार, 26 अक्तूबर 2011
उनसे महज़ दोस्ती की है ...
उनसे महज़ दोस्ती की है !
पर उनके नाम ज़िन्दगी की है !!
ग़म को ख़ुशी के चिराग़ों में डाल कर !
बुझते हुए वक़्त पे रौशनी की है !!
आशियाने का सपना पूरा हुआ आख़िर !
खुद के नाम दो गज ज़मीं की है !!
कोई और न आ कर कुचल डाले इन्हें !
अरमानों ने यही सोच कर ख़ुदकुशी की है !!
'गिरि' ने खुद को गुनाहगार साबित कर के !
कई दिलों के बीच फ़ासले में कमी की है !!
- संकर्षण गिरि
शनिवार, 1 अक्तूबर 2011
जब से मैं खुद से मिला हूँ ...
शनिवार, 17 सितंबर 2011
एक अजब - सा द्वन्द्व मन में ...
इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !
सोमवार, 29 अगस्त 2011
ईद
शनिवार, 27 अगस्त 2011
किससे मैं उम्मीद करूँ ...
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात !
कौन चाहता है मुझ पर मुस्कान खिले ,
किसको धुन है नींद चैन की सोऊँ मैं ?
है कद्र किसे जज़्बात , मेरे अहसासों की ,
कौन मुझे गलबाँही दे जब रोऊँ मैं ?
शुष्क पीत तरु की फुनगी , पतझर में जैसे फूल - पात !
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात ! !
हूँ विवश , ह्रदय का ताप सहन करता हूँ ,
निज स्वप्न - हविष से यज्ञ - हवन करता हूँ ;
खुश होता है जग रौंद मेरी अभिलाषा को ,
मैं यूँ अपना अस्तित्व ग्रहण करता हूँ !
है दबा हुआ मेरे भीतर एक भीषण झंझावात !
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात !!
-- संकर्षण गिरि
रविवार, 14 अगस्त 2011
चुभन
चुभती हुई यादें...
चुभती हुई कुछ यादें ,
अचानक ज़ेहन में आ कर ,
कर जाती हैं मन को खिन्न...
चुभती हुई यादें ,
बार - बार उन्हीं पलों में ले जाती हैं मुझे ,
जीने को मजबूर करती हैं
फिर से वही लम्हे !
और टूट कर
फिर से बिखर जाता हूँ मैं ;
दग्ध ह्रदय लिए
वर्तमान में वापस आता हूँ मैं ।
चुभती हुई यादें
ज़ख्म बन कर चिपक जाती हैं ... ज़िन्दगी से ...
और छिड़कती रहती हैं नमक ,
स्वयं पर ही ,
ताकि ज़ख्म हरा बना रहे... हमेशा !
और उनके अस्तित्व को
नज़र न लगे किसी शै की !
चुभती हुई यादों पर ,
मेरा कोई वश नहीं चल पता ।
स्वतः आती हैं वो ,
मेरे अस्तित्व को
छिन्न भिन्न कर लेने के बाद ,
आहिस्ते से
लोप हो जाती हैं वो !
- संकर्षण गिरि
शुक्रवार, 12 अगस्त 2011
बहन के प्रति...
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी...
ये जुदाई तो महज चंद दिनों की होगी !
फूल - सा चेहरा तेरा गर अभी मुरझायेगा ,
चैन से मेरा सफ़र क्या कभी कट पायेगा ,
तेरी मुस्कान ही मेरे लिए ताक़त होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!
दूरी चाहत को बढ़ाती है , ये सच है सुन ले ,
आने वाली है खिज़ां , फूल फ़िज़ां के चुन ले ,
जानता हूँ मेरी मौजूदगी जन्नत होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!
कैसे कट पायेगा दिन , कैसे कटेंगी रातें ,
कैसे कर पायेंगे हम प्यार की मीठी बातें ;
लौट कर आऊंगा तब ख़त्म ये क़ुल्फत होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!
है ख़ुशी जैसे जरूरी , उसी तरह ग़म भी ,
आँखें होनी चाहिए कभी - कभी नम भी ,
जूझने वालों पे अल्लाह की रहमत होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!
ये जुदाई तो महज चंद दिनों की होगी !!
- संकर्षण गिरि
रविवार, 24 जुलाई 2011
नयनाभिराम है दृश्य...
क्योंकि तक रहे नयन हैं तुमको !
अखिल सृष्टि के कोलाहल में ज्यों कोकिल की वाणी ,
अंतर के सूनेपन को भरने वाली कल्याणी !
आज हिलोरें मार रहा उर पा अपनी प्रेयसी को ,
आज नयन के कोरों में उठ छलक पड़ा है पानी !
आज अलौकिकता को मैंने अपनी बाहों में घेरा ,
आज भुवन संपूर्ण मुझे दिखलाई पड़ता है मेरा ;
आज होड़ है आसमान से , इन्द्रधनुष से ,
आज चन्द्रमा को गुदगुदी लगाई , तारों को छेड़ा !
पोर - पोर में ख़ुशी ,
क्योंकि छक रहे नयन हैं तुमको !
नयनाभिराम है दृश्य ,
क्योंकि तक रहे नयन हैं तुमको !
- संकर्षण गिरि
गुरुवार, 9 जून 2011
छलकते नयनों से दो चार...
बूँद में बह गया सारा प्यार !
चिता की धूम्र उठी नभ में ,
उठा ले गया मिट्टी कुम्हार !
वहाँ तक बचपन आ पहुँचा ,
जहाँ पर सीमित है अधिकार !
रात ने सूनेपन के साथ ,
अँधेरा मुझसे लिया उधार !
मैं तब भी बहुत अकेला हूँ ,
कि जब ये पृथ्वी है परिवार !
- संकर्षण गिरि
शुक्रवार, 27 मई 2011
तुम मुझको गलबाँही देना ...
तुम रखना बस नींव प्रेम की , मैं दूँगा विस्तार !!
तुम नभ की जब ओर तकोगी , छूने की आशा में !
मैं तब साथ तुम्हारे चल कर , चुनूँगा पथ के ख़ार !!
मेरी जितनी ऊँचाई है , उतनी ऊँची तुम !
हम दोनों का एक दूसरे पर है सम अधिकार !!
प्रेम भावना होगी तब ही सफल सुखद जीवन होगा !
अमित स्नेह से ढह जाती है बीच खड़ी दीवार !!
तुम ही हो सर्वस्व , तुम ही जीवन हो , तुम हो प्राण !
तुम मेरे भावी जीवन की एकमात्र आधार !!
- संकर्षण गिरि
शनिवार, 14 मई 2011
मेदिनी सी मुस्कान धरो...
रविवार, 3 अप्रैल 2011
स्वप्न की सत्य से टक्कर ...
स्वप्न की जब सत्य से टक्कर हुई , किस्मत मेरी कुछ और भी जर्जर हुई !
छोटी - सी उम्र में बड़े अनुभव हुए , रुसवाइयाँ हुईं तो वो जम कर हुईं !
वक़्त का चेहरा बड़ा मासूम है , धोखे में रहा , गलती ये अक्सर हुई !
पत्थर है वो , पूजा के काबिल , मैं फूल, मेरी दुर्गति खिल कर हुई !
दूर से ही दीखता है चाँद निर्मल , घनघोर निराशा उसे छू कर हुई !
'गिरि' का घर लुटा , मनमीत छूटा , आइना साथी , ज़मी बिस्तर हुई !
- संकर्षण गिरि
शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011
मेरी पहली कविता - प्रयास (१९९७)
आज लेखनी उछल पड़ी है क्या करती है देखूँ !
बालक मैं नादान बहुत हूँ कविता टेढ़ी खीर ,
अरे लेखनि ! क्यों उठती है तेरे दिल में पीर ?
इसीलिए कि पिता जी मेरे कविता करते रहते हैं ,
और मेरे अग्रज जी भी इस धुन में आगे रहते हैं ?
जब इस घर में सब कोई कविता में डूबा रहता है ,
मैं क्यों एक अपवाद रहूँ यह ह्रदय कोसता रहता है !
किन्तु कैसे लिख पाउँगा सोच सोच घबराता हूँ ,
प्रथम प्रयास में आज ये अपना पहला कदम बढाता हूँ !
हो सकता है लिखते लिखते कुछ अच्छा लिख जाऊंगा ,
पितृ - चरण चिन्हों पर चल कर अंतर का सुख पाऊंगा !
- संकर्षण गिरि
मंगलवार, 11 जनवरी 2011
समंदर
२२ अगस्त , २००९ को चेन्नई में समंदर पहली बार महसूस करने पर...
मैंने आज समंदर देखा !
सीने में तूफ़ान है मगर ,
- संकर्षण गिरि
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
जीवन ने मुझको खूब छला...
अभाव
हिंदी की कक्षा में अक्सर हमें ,
रिक्त स्थानों की पूर्ति करने को कहा जाता था...
और हम बड़े चाव से ,
सटीक शब्दों से ,
पूरा कर देते थे दिए गए अधूरे वाक्य को !
आज... जब तुम चले गए हो ,
और
तुम्हारा स्थान रिक्त हो गया है ...
कैसे पूर्ति करूँ उस अभाव की ?
कागज़ और जीवन में यही तो फर्क है ,
कागज़ को शब्द मिल जाते हैं ,
जीवन रह जाता है -
अकेला , असहाय , अपूर्ण , रिक्त ...!!!
- संकर्षण गिरि
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
जन्नत
मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ,
हर जगह , हर वक़्त , हर पल !
तुम मुझे भूलो, नज़र फेरो ,
या मेरा त्याग कर दो ,
खामोश रह कर मैं तुम्हारी हर एक इच्छा को ,
सम्मान दूंगा और तुमसे दूर हो लूँगा !
दूर हो लूँगा मगर इतना नहीं कि ,
जब जरूरत हो मेरी मैं आ नहीं पाऊं ;
दूर होने से मेरा आशय यही है ,
जब पुकारो तुम , मैं खुद को रोक न पाऊं !
ज़िन्दगी ने दगा दी गर ,
आसमा वाले से कहूँगा मेरी जन्नत ज़मी पर है ,
मुझे रोको नहीं ,
और जाने दो भटकती रूह बन कर ही सही !
आसमां वाले को पता तो चले आखिर ,
कि कोई छोड़ भी सकता बनाए उसके जन्नत को !
जन्नत तुम ही हो ,
और मेरी कल्पना की ,
साकार मूर्ति एक तुम ही तो हो केवल !
मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ,
हर जगह , हर वक़्त , हर पल !
- संकर्षण गिरि
गुरुवार, 25 नवंबर 2010
आस अभी भी ...
आस अभी भी , प्यास अभी भी ,
जीने का अहसास अभी भी !
तुमको पा लेने की ख्वाहिश ,
खामोशी में आवाज़ अभी भी !
मैं हूँ कि जीता जाता हूँ ,
राह तके श्मशान अभी भी !
एक गुनाह किया था मैंने ,
आँखों से बरसात अभी भी !
'गिरि' को खुद कि खबर नहीं है ,
लेकिन सबकी याद अभी भी !
- संकर्षण गिरि
शनिवार, 30 अक्तूबर 2010
ग़ज़ल
कुछ इसी तरह मैं उनको पाने की उम्मीद लगा बैठा !
( आहू = हिरन ; सहरा = रेगिस्तान ; सराब = मृगतृष्णा )
आसमान पे नज़र गयी तो खौफ़नाक़ - सा मंज़र था,
दिल मे झांका तो वैसे ही सन्नाटे से घबरा बैठा !
जब चोट लगी जब दर्द हुआ, आँखों से नमी छीनी मैने,
जब आह निकलने वाली थी, मैं अपने होठ दबा बैठा !
आखिरी ख्वाहिश पूरी करने जब कोई नहीं दर पर आया,
'गिरि' ने खुद को अलविदा कहा, माथा अपना सहला बैठा !
- संकर्षण गिरि