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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016


क्षमा करें जिनकी आशाओं पर मैं खरा नहीं उतरा !


निःस्वार्थ भाव से मैंने सबकी सेवा की 
बिन माँगे मैंने सबकी झोली भर दी 
ताने कितने ही सुने, सहे, किंतु  हँस कर 
मैंने वो सब ही किया मुझे जो सही लगा,
और वही जो सबको सुख दे सकता था,
और वही जो खुशियों की परिभाषा थी !
फिर भी यदि कहीं कभी कोई रह गयी कमी,
सर्वत्र अगर मैं पुष्प गंध - सा नहीं बिखरा !
क्षमा करें जिनकी आशाओं पर मैं खरा नहीं उतरा !!


जाने कितनी ही बार लँघा अपनी सीमा,
जाने कितने ही घूँट पिये अपमानों के !
पर चादर तो मैली होने के लिए बनी -
बस एक भूल भारी सौ-सौ अच्छाई पर !
बस एक कलंक माथे पर यदि लग जाए तो,
जीवन पहाड़ - सा भारी लगने लगता है,
छवि धूमिल होती और निराश मन हो जाता है । 
फिर भी पतझर के पत्तों सा मैं नहीं झरा !
क्षमा करें जिनकी आशाओं पर मैं खरा नहीं उतरा !!


- संकर्षण गिरि 

बुधवार, 2 नवंबर 2016

मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ !


मैं किसी पर क्यों भला ऊँगली उठाऊँ
मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ !

एक समय था मैं पिता का हाथ थामे
साथ चलता था कि खो न जाऊँ कहीं ,
और माँ की गोद में था खेलता रहता
निर्भीक हो कर ज्यों समूची दुनिया हो वहीं!

एक समय है राह पर काँटे ही काँटे हैं,
और अकेले ही मुझे उस पर जाना है,
भय, निराशा को, सभी अपमान को पी कर,
कनिष्ठा से वृहत गोवर्धन उठाना है !

हाँ, ये सच है बोझ कंधे पर रखे मैंने,
और मीलों तक चला, ठोकर भी खाया ,
और गिरा, गिर कर उठा, उठ कर चला
दर्द में भी मुस्कुराया, गुनगुनाया ।

पंख फैला कर उड़ा आकाश में भी ,
सृजन के ही गीत लिक्खे नाश में भी,
अनुभवों का वृक्ष यूँ फलता रहा,
मेरे भीतर का पथिक चलता रहा !

स्नेह कुछ से, और कुछ से उपेक्षा ,
हर कदम पर दी है मैंने परीक्षा ,
निकट हूँ हृदयों के तो हूँ दूर भी ,
अगर कायर हूँ तो हूँ मैं शूर भी ।

मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने साथ छोड़ा,
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ का साथ पाया ,
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने दी बधाई
मैंने नियम तोड़ा तो कुछ ने मुँह की खायी !

आज किंतु परिस्थितियां हैं अलग सी,
मैंने स्वयं को युद्ध का न्यौता दिया है
मानव भी मैं, दानव भी मैं ही,
मैंने ही अमृत और हालाहल पिया है !

मैंने ही साधा है निशाना स्वयं पर,
और निर्मम, क्रूर होता जा रहा हूँ !
मैं किसी पर क्यों भला ऊँगली उठाऊँ
मैं स्वयं से दूर होता जा रहा हूँ!


- संकर्षण गिरि 

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014



प्रारब्ध

मैं अभी राह पर पड़ा हुआ एक पत्थर हूँ ,
आओ मुझको ठोकर मारो , कुछ खेल करो !
किन्तु किसी विधि मैं पहुँच गया जो मंदिर में ,
तुम ही मुझको पूजोगे , भोग लगाओगे !!


- संकर्षण गिरि

बुधवार, 2 जुलाई 2014


निवारण


मेरी बुद्धि पर अंधकार का ये जो आवरण है !
यही मेरे पतन का एकमात्र कारण है !!

सहिष्णुता से वैर , इन्द्रियाँ वश में नहीं !
स्वजनों से दूर करता मुझे मेरा आचरण है !!

सृजन की अभिलाषा मूर्त रूप न ले सकी !
मेरी अकर्मण्यता इसका एकमात्र उदाहरण है !!

रूप की तृष्णा ने जीवन को मरुस्थल कर दिया !
मृग की सौंदर्य - पिपासा क्षणिक नहीं , आमरण है !!

ज्ञान - चक्षुओं के बस खुलने की देर है !
मेरी समस्त बुराइयों का इनमें निवारण है !!

- संकर्षण गिरि

रविवार, 9 मार्च 2014

फल

 
 
मिट्टी  को थोड़ा मृदु बना 
मैंने बोया था बीज एक ,
खाद दिया, जल - धूप - छाँह 
पर बाधा आती रही अनेक !
 
 
मिट्टी में तब अंकुर फूटे 
जब स्वेद बहा , उद्योग हुआ 
संपर्क नए नित बढ़े जभी 
पौधे को हिल - मिल रोग हुआ !
 
 
ये रोग पड़ा भारी मुझ पर 
माली था , त्याग न सकता था । 
आती विपदा पर पौधे को 
कातर दृष्टि से तकता था । 
 
 
एक दुष्ट पवन के झोंके को
ऐसे अवसर की थी तलाश ,
जब माली जाए दूर कहीं 
वो पौधे का कर सके नाश । 
 
 
वो समय भयानक आया भी 
जब बिखर गयी डाली - डाली , 
जड़ भूमि से था अलग हुआ 
जब दूर कहीं पर था माली !
 
 
मूढ़ स्वयं को कहूँ या कि 
सब दोष नियति पर ही मढ़ दूँ 
चिंतित हो कर सोचता रहूँ या 
एक नयी दुनिया गढ़ लूँ !!
 
 
- संकर्षण गिरि  

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

 
 
 
छोटी - छोटी बातों से तुम व्यर्थ परेशाँ होते हो !
 
 
छोटी - छोटी बातों से तुम व्यर्थ परेशाँ होते हो !
इनसे निजात पाने को बस मुस्कान एक ही काफ़ी  है !!
 
मंज़िल का रस्ता भटक गये तो नई राह ईज़ाद करो !
वरना पैरों में खौफ़ भरने को ख़ार एक ही काफ़ी  है !!
 
अपने गुनाह पर दिल से शर्मिन्दा हो तो यह बात सुनो !
आँखों से आँसू की बस बरसात एक ही काफ़ी है !!
 
दुनिया की बेतरतीब चाल रोके , कोई दीवार बने !
बदलाव का जज़्बा हो तो बस इंसान एक ही काफ़ी है !!
 
मिट्टी का चलता फिरता बुत जादुई है , लासानी है !
ऐसा अज़ीम ऊपर वाला कुम्हार एक ही काफ़ी है !!
 
कुछ भी कहते रहें लोग पर 'गिरि' का कहना है ऐसा !
मिल जाए ग़र सच्चा तो अहबाब एक ही काफी है !!
 
 
- संकर्षण गिरि 

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

टुकड़े



ज़िन्दगी को टटोल कर देखा

तो वक़्त के कुछ टुकड़े हाथ में आ गए

और टुकड़े भी ऐसे ,

कि जिनकी कोई पहचान नहीं !


ख़ुशी वाले वक़्त के टुकड़े हैं

या  ग़म के ,

आशा के हैं या निराशा को जन्म देने वाले ...

कुछ भी तो नहीं मालूम !

क्या करूँ मैं इनको ले कर ?

ज़िन्दगी की चादर अभी फटी भी तो नहीं ,

वरना कोई टुकड़ा उठा कर पैबंद ही लगा देता


ज़िन्दगी वक़्त को

पहले से कोई नाम दे कर नहीं रखती ;

ज़िन्दगी की जेब में वज़न तो है

पर है वो उसी के काम की ।

किसी जेबकतरे को रोना ही आएगा अपने नसीब पे ...

शायद इसीलिए ,

पहेली कहते हैं ज़िन्दगी को ।


बेहतर है

इन टुकड़ों को वहीं रख दूँ

जहाँ से ये हाथ लगे थे . . . !!!



- संकर्षण गिरि

सोमवार, 12 मार्च 2012

भीष्म की विवशता

कुरुक्षेत्र की युद्ध - भूमि के समान है जीवन ,
इंसान जिसमें
महाभारत के किसी पात्र को जीता है ।
अपना सर्वस्व दे कर ,
विजय की आशा में युद्ध करता है ...
पराजित हो कर जीवन का मार्ग अवरुद्ध करता है ;
और जयी होता है तो
जीवन को संतुलित और शुद्ध करता है ।


मैंने भी जिया है कुरुक्षेत्र को ।
जीवन - समर में खड़े हो कर
भीष्म बन ...
कई बार
अपने अस्तित्व को ललकारा है मैंने ,
विवशता ने हर बार
उद्विग्न किया है मेरा ह्रदय !


आज बाण - शय्या पर लेटा हूँ !
अर्जुन का पात्र निभा रही एक ज़िन्दगी ने ,
शब्दों के बाण चलाये हैं मेरे ऊपर ...
और बिंध गया हूँ पूर्णतः ,
इस ब्रह्मास्त्र से मैं !

लहू लुहान है शरीर , छलनी है ह्रदय !

ह्रदय छलनी है क्योंकि
भीष्म के सर्वप्रिय अर्जुन को ,
विजय के अतिशय उन्माद में
ग्लानि - युक्त भाव भी नहीं आये ,
हाय , नियति ने ये कैसे दिन दिखाए !


इच्छा - मृत्यु के वरदान से वंचित हूँ ,
बाण - शय्या के साथ ही जीना है मुझे ,
शब्दों का विष आगे भी पीना है मुझे ...!




- संकर्षण गिरि

शनिवार, 10 मार्च 2012

ग़ज़ल

जहाँ ठोकर की थी उम्मीद , वहीं पर खड़ा हुआ !
मैं ज़माने की जलती निगाहों के बीच बड़ा हुआ !!

बड़ा अनमोल हूँ लेकिन पहुँच से दूर हूँ सबकी !
मुझे वो ढूँढ लेंगे , एक खज़ाना हूँ गड़ा हुआ !!

मेरी आँखों में सपने और मेरे पाँव में छाले !
मेरे है सामने मंज़िल औ' मैं गुमसुम , डरा हुआ !!

मुझे बेशक़ बुरा समझे कोई , बिसरे कोई !
मैं अपने आप में उलझा हुआ , उखड़ा हुआ !!

बहुत ही पाक़ नज़रों से मुझे देखा किये !
मेरा महबूब मेरे रग-रग में है भरा हुआ !!


- संकर्षण गिरि

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

वर्ष नव ,
हर्ष नव ,
जीवन उत्कर्ष नव !

नव उमंग ,
नव तरंग ,
जीवन का नव प्रसंग !

नवल चाह ,
नवल राह ,
जीवन का नव प्रवाह !

गीत नवल ,
प्रीति नवल ,
जीवन की रीति नवल !
जीवन की नीति नवल !
जीवन की जीत नवल !

- बच्चन जी !

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !

उनसे महज़ दोस्ती की है ...



उनसे महज़ दोस्ती की है !
पर उनके नाम ज़िन्दगी की है !!

ग़म को ख़ुशी के चिराग़ों में डाल कर !
बुझते हुए वक़्त पे रौशनी की है !!

आशियाने का सपना पूरा हुआ आख़िर !
खुद के नाम दो गज ज़मीं की है !!

कोई और न आ कर कुचल डाले इन्हें !
अरमानों ने यही सोच कर ख़ुदकुशी की है !!

'गिरि' ने खुद को गुनाहगार साबित कर के !
कई दिलों के बीच फ़ासले में कमी की है !!


- संकर्षण गिरि

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

जब से मैं खुद से मिला हूँ ...


जब से मैं खुद से मिला हूँ !

मैं अकेला हो चला हूँ!



चाँद खुद से नहीं रौशन ,

मैं मगर जलता दीया हूँ !



ठोकर लगी तो बैठ जाऊं ?

आँधियों का सिलसिला हूँ !



वो मुझमे देखता है अक्स अपनी ,

महबूब का मैं आइना हूँ !



फूल जैसे धूल में लिपटे हुए हों ,

जैसा भी हूँ अपनी माँ का लाड़ला हूँ !





- संकर्षण गिरि

शनिवार, 17 सितंबर 2011

एक अजब - सा द्वन्द्व मन में ...






इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



क्या करूँ , थोडा व्यथित हूँ ,

स्वयं से ही मैं चकित हूँ ,

क्यों मुझे संघर्ष करना पड़ रहा इन्द्रिय - दमन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



पत्थर बनूँ या फूल कोमल ,

फ़ैसला करने में असफल ,

उर को जब भी ठेस पहुँची , आ गए आँसू नयन में !

एक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



लक्ष्य दीखता सामने है ,

ताक़त नहीं पर पाँव में है ,

हँस दूँ अपने भाग्य पर या डूब जाऊँ मैं रुदन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !



पूर्णता संभव नहीं है ,

कहता मेरा अनुभव यही है ,

गंध तो होता है किन्तु कीट भी होते सुमन में !

इक अजब - सा द्वन्द्व मन में !




- संकर्षण गिरि

सोमवार, 29 अगस्त 2011

ईद




ईद , मीठी ईद !

हो गयी महीन से मुस्कान वाले

चन्द्रमा की दीद !

ईद , मीठी ईद !!




बारिश दुआ की ,

रहमत ख़ुदा की ,

आमीन ! सब पर रौशनी करता रहे ख़ुर्शीद !

ईद मीठी, ईद मीठी , ईद मीठी , ईद !!

ईद , मीठी ईद !!


- संकर्षण गिरि

शनिवार, 27 अगस्त 2011

किससे मैं उम्मीद करूँ ...


किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात !


कौन चाहता है मुझ पर मुस्कान खिले ,
किसको धुन है नींद चैन की सोऊँ मैं ?
है कद्र किसे जज़्बात , मेरे अहसासों की ,
कौन मुझे गलबाँही दे जब रोऊँ मैं ?
शुष्क पीत तरु की फुनगी , पतझर में जैसे फूल - पात !
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात ! !



हूँ विवश , ह्रदय का ताप सहन करता हूँ ,
निज स्वप्न - हविष से यज्ञ - हवन करता हूँ ;
खुश होता है जग रौंद मेरी अभिलाषा को ,
मैं यूँ अपना अस्तित्व ग्रहण करता हूँ !
है दबा हुआ मेरे भीतर एक भीषण झंझावात !
किससे मैं उम्मीद करूँ , समझेगा मेरी कौन बात !!

-- संकर्षण गिरि

रविवार, 14 अगस्त 2011

चुभन


चुभती हुई यादें...

चुभती हुई कुछ यादें ,
अचानक ज़ेहन में कर ,
कर जाती हैं मन को खिन्न...

चुभती हुई यादें ,
बार - बार उन्हीं पलों में ले जाती हैं मुझे ,
जीने को मजबूर करती हैं
फिर से वही लम्हे !

और टूट कर
फिर से बिखर जाता हूँ मैं ;
दग्ध ह्रदय लिए
वर्तमान में वापस आता हूँ मैं

चुभती हुई यादें
ज़ख्म बन कर चिपक जाती हैं ... ज़िन्दगी से ...
और छिड़कती रहती हैं नमक ,
स्वयं पर ही ,
ताकि ज़ख्म हरा बना रहे... हमेशा !
और उनके अस्तित्व को
नज़र लगे किसी शै की !

चुभती हुई यादों पर ,
मेरा कोई वश नहीं चल पता

स्वतः आती हैं वो ,
मेरे अस्तित्व को
छिन्न भिन्न कर लेने के बाद ,
आहिस्ते से
लोप हो जाती हैं वो !


- संकर्षण गिरि

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

बहन के प्रति...




मेरे जीवन में आयीं तुम ,

भाई को उसकी बहन मिली ;

बहन का भाई से अटूट स्नेह का रिश्ता है ,

भाई के लिए उसकी बहन एक फ़रिश्ता है...!



- संकर्षण गिरि

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी...

तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी ,
ये जुदाई तो महज चंद दिनों की होगी !

फूल - सा चेहरा तेरा गर अभी मुरझायेगा ,
चैन से मेरा सफ़र क्या कभी कट पायेगा ,
तेरी मुस्कान ही मेरे लिए ताक़त होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!

दूरी चाहत को बढ़ाती है , ये सच है सुन ले ,
आने वाली है खिज़ां , फूल फ़िज़ां के चुन ले ,
जानता हूँ मेरी मौजूदगी जन्नत होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!

कैसे कट पायेगा दिन , कैसे कटेंगी रातें ,
कैसे कर पायेंगे हम प्यार की मीठी बातें ;
लौट कर आऊंगा तब ख़त्म ये क़ुल्फत होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!

है ख़ुशी जैसे जरूरी , उसी तरह ग़म भी ,
आँखें होनी चाहिए कभी - कभी नम भी ,
जूझने वालों पे अल्लाह की रहमत होगी !
तेरे रूख्सार पे अश्क़ों की ये बूँदें कैसी !!
ये जुदाई तो महज चंद दिनों की होगी !!


- संकर्षण गिरि

रविवार, 24 जुलाई 2011

नयनाभिराम है दृश्य...

नयनाभिराम है दृश्य ,
क्योंकि तक रहे नयन हैं तुमको !

अखिल सृष्टि के कोलाहल में ज्यों कोकिल की वाणी ,
अंतर के सूनेपन को भरने वाली कल्याणी !
आज हिलोरें मार रहा उर पा अपनी प्रेयसी को ,
आज नयन के कोरों में उठ छलक पड़ा है पानी !

आज अलौकिकता को मैंने अपनी बाहों में घेरा ,
आज भुवन संपूर्ण मुझे दिखलाई पड़ता है मेरा ;
आज होड़ है आसमान से , इन्द्रधनुष से ,
आज चन्द्रमा को गुदगुदी लगाई , तारों को छेड़ा !

पोर - पोर में ख़ुशी ,
क्योंकि छक रहे नयन हैं तुमको !
नयनाभिराम है दृश्य ,
क्योंकि तक रहे नयन हैं तुमको !


- संकर्षण गिरि

गुरुवार, 9 जून 2011

छलकते नयनों से दो चार...

छलकते नयनों से दो चार ,
बूँद में बह गया सारा प्यार !

चिता की धूम्र उठी नभ में ,
उठा ले गया मिट्टी कुम्हार !

वहाँ तक बचपन आ पहुँचा ,
जहाँ पर सीमित है अधिकार !

रात ने सूनेपन के साथ ,
अँधेरा मुझसे लिया उधार !

मैं तब भी बहुत अकेला हूँ ,
कि जब ये पृथ्वी है परिवार !


- संकर्षण गिरि

शुक्रवार, 27 मई 2011

तुम मुझको गलबाँही देना ...

तुम मुझको गलबाँही देना , मैं दूँगा संसार !
तुम रखना बस नींव प्रेम की , मैं दूँगा विस्तार !!

तुम नभ की जब ओर तकोगी , छूने की आशा में !
मैं तब साथ तुम्हारे चल कर , चुनूँगा पथ के ख़ार !!

मेरी जितनी ऊँचाई है , उतनी ऊँची तुम !
हम दोनों का एक दूसरे पर है सम अधिकार !!

प्रेम भावना होगी तब ही सफल सुखद जीवन होगा !
अमित स्नेह से ढह जाती है बीच खड़ी दीवार !!

तुम ही हो सर्वस्व , तुम ही जीवन हो , तुम हो प्राण !
तुम मेरे भावी जीवन की एकमात्र आधार !!


- संकर्षण गिरि

शनिवार, 14 मई 2011

मेदिनी सी मुस्कान धरो...


घृणा के बोये मैंने बीज ,

उठी अंतर से करुण पुकार ,

कहीं पर सिसक उठी एक रूह ,

किसी का भूला भटका प्यार !


समय के तरकश से अक्सर ,

निकलते रहे हैं तीर अचूक ,

जिन्होंने बेधे मेरे प्राण ,

कि जिससे वाणी हो गयी मूक !


समंदर सूख गया निर्लज्ज ,

जगा कर मेरे उर की प्यास ;

भ्रमर को पत्थर से क्या काम ,

भ्रमर नीरज में करता वास !


चहक कर जैसे ही खग ने ,

पसारे अपने नन्हे पंख ,

पवन ने बदला अपना रुख ,

दिखाया आंधी का आतंक !


बरस कर बादल ने निर्झर ,

मेरे नयनों का साथ दिया ,

मृदा ने अपने कर फैला ,

बहते अश्रु को सोख लिया !


जहाँ तक दृष्टि का है प्रश्न ,

क्षितिज के देख सकता हूँ पार ,

जहाँ तक पाँव साथ देंगे ,

चुनौती है हर एक स्वीकार !


समय की विस्तृत पगडण्डी ,

कि जिस पर चलना अपना कर्म ,

भुला कर भूत के दारुण दुःख ,

मान कर प्रेम ही को निज धर्म !


घृणा के बोये हैं जो बीज ,

भविष्यत् में घातक होंगे ,

कर्म फल होगा विष से युक्त ,

सफलता में बाधक होंगे !


हुए हो कटु अनुभव तो क्या ,

मेदिनी सी मुस्कान धरो ,

खिलाओ मुरझाते चेहरे ,

नयन में नित उन्माद भरो !


बड़ा ही जीवन में अनमोल ,

बड़े ही कोमल हैं सम्बन्ध ,

भावनाओं का हो विस्तार ,

तभी सर्वत्र फैलता है सुगंध !



- संकर्षण गिरि

रविवार, 3 अप्रैल 2011

स्वप्न की सत्य से टक्कर ...




स्वप्न की जब सत्य से टक्कर हुई , किस्मत मेरी कुछ और भी जर्जर हुई !


छोटी - सी उम्र में बड़े अनुभव हुए , रुसवाइयाँ हुईं तो वो जम कर हुईं !


वक़्त का चेहरा बड़ा मासूम है , धोखे में रहा , गलती ये अक्सर हुई !


पत्थर है वो , पूजा के काबिल , मैं फूल, मेरी दुर्गति खिल कर हुई !


दूर से ही दीखता है चाँद निर्मल , घनघोर निराशा उसे छू कर हुई !


'गिरि' का घर लुटा , मनमीत छूटा , आइना साथी , ज़मी बिस्तर हुई !



- संकर्षण गिरि

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मेरी पहली कविता - प्रयास (१९९७)

बहुत दिनों से सोच रहा था मैं भी कविता लिखूँ ,
आज लेखनी उछल पड़ी है क्या करती है देखूँ !

बालक मैं नादान बहुत हूँ कविता टेढ़ी खीर ,
अरे लेखनि ! क्यों उठती है तेरे दिल में पीर ?

इसीलिए कि पिता जी मेरे कविता करते रहते हैं ,
और मेरे अग्रज जी भी इस धुन में आगे रहते हैं ?

जब इस घर में सब कोई कविता में डूबा रहता है ,
मैं क्यों एक अपवाद रहूँ यह ह्रदय कोसता रहता है !

किन्तु कैसे लिख पाउँगा सोच सोच घबराता हूँ ,
प्रथम प्रयास में आज ये अपना पहला कदम बढाता हूँ !

हो सकता है लिखते लिखते कुछ अच्छा लिख जाऊंगा ,
पितृ - चरण चिन्हों पर चल कर अंतर का सुख पाऊंगा !


- संकर्षण गिरि

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

समंदर


२२ अगस्त , २००९ को चेन्नई में समंदर पहली बार महसूस करने पर...


मैंने आज समंदर देखा !

लहरों का चढ़ना - उतराना ,
लहरों का संगीत सुनाना ,
दूर क्षितिज तक जल ही जल , यह दृश्य बड़ा ही सुन्दर देखा !
मैंने आज समंदर देखा !

सीने में तूफ़ान है मगर ,
स्वागत सबके पाँव चूम कर !
ऐसा ही एक सागर मैंने अपने दिल के अन्दर देखा !
मैंने आज समंदर देखा !


- संकर्षण गिरि

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

जीवन ने मुझको खूब छला...



जीवन ने मुझको खूब छला !

जन्म और मृत्यु के बीच ,
खुद को डाला आँसू में सींच ,
शीतलता अनुभव करने के पहले मैं सौ - सौ बार जला !
जीवन ने मुझको खूब छला !

मैं गगन चाहता था छूना ,
और मिला मुझे पथ भी सूना ,
पार भाग्य ने हर उस राह को मोड़ा मैं जिसकी भी ओर चला !
जीवन ने मुझको खूब छला !

जीवन की परिभाषा क्या है ?
और मेरी अभिलाषा क्या है !
इस बर्बर उधेड़बुन की गोदी में हूँ मैं पला - बढ़ा !
जीवन ने मुझको खूब छला !


- संकर्षण गिरि

अभाव

हिंदी की कक्षा में अक्सर हमें ,

रिक्त स्थानों की पूर्ति करने को कहा जाता था...

और हम बड़े चाव से ,

सटीक शब्दों से ,

पूरा कर देते थे दिए गए अधूरे वाक्य को !


आज... जब तुम चले गए हो ,

और

तुम्हारा स्थान रिक्त हो गया है ...

कैसे पूर्ति करूँ उस अभाव की ?


कागज़ और जीवन में यही तो फर्क है ,

कागज़ को शब्द मिल जाते हैं ,

जीवन रह जाता है -

अकेला , असहाय , अपूर्ण , रिक्त ...!!!

- संकर्षण गिरि

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

जन्नत


मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ,
हर जगह , हर वक़्त , हर पल !

तुम मुझे भूलो, नज़र फेरो ,
या मेरा त्याग कर दो ,
खामोश रह कर मैं तुम्हारी हर एक इच्छा को ,
सम्मान दूंगा और तुमसे दूर हो लूँगा !

दूर हो लूँगा मगर इतना नहीं कि ,
जब जरूरत हो मेरी मैं आ नहीं पाऊं ;
दूर होने से मेरा आशय यही है ,
जब पुकारो तुम , मैं खुद को रोक न पाऊं !

ज़िन्दगी ने दगा दी गर ,
आसमा वाले से कहूँगा मेरी जन्नत ज़मी पर है ,
मुझे रोको नहीं ,
और जाने दो भटकती रूह बन कर ही सही !

आसमां वाले को पता तो चले आखिर ,
कि कोई छोड़ भी सकता बनाए उसके जन्नत को !

जन्नत तुम ही हो ,
और मेरी कल्पना की ,
साकार मूर्ति एक तुम ही तो हो केवल !

मैं तुम्हारे साथ ही हूँ ,
हर जगह , हर वक़्त , हर पल !


- संकर्षण गिरि

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

आस अभी भी ...


आस अभी भी , प्यास अभी भी ,
जीने का अहसास अभी भी !

तुमको पा लेने की ख्वाहिश ,
खामोशी में आवाज़ अभी भी !

मैं हूँ कि जीता जाता हूँ ,
राह तके श्मशान अभी भी !

एक गुनाह किया था मैंने ,
आँखों से बरसात अभी भी !

'गिरि' को खुद कि खबर नहीं है ,
लेकिन सबकी याद अभी भी !


- संकर्षण गिरि

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल

जैसे आहू को सहरा में मिल गया कहीं कोई सराब,
कुछ इसी तरह मैं उनको पाने की उम्मीद लगा बैठा !
( आहू = हिरन ; सहरा = रेगिस्तान ; सराब = मृगतृष्णा )

आसमान पे नज़र गयी तो खौफ़नाक़ - सा मंज़र था,
दिल मे झांका तो वैसे ही सन्नाटे से घबरा बैठा !

जब चोट लगी जब दर्द हुआ, आँखों से नमी छीनी मैने,
जब आह निकलने वाली थी, मैं अपने होठ दबा बैठा !

आखिरी ख्वाहिश पूरी करने जब कोई नहीं दर पर आया,
'गिरि' ने खुद को अलविदा कहा, माथा अपना सहला बैठा !


- संकर्षण गिरि